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नय-रहस्य और क्षायिक - इन चार भावों को कर्मोपाधि में ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि दृष्टि का विषय इन चार भावों से भिन्न परमपारिणामिकभावस्वरूप है। मात्र निर्मल पर्यायों से भिन्न या अभिन्न बतानेवाला कोई द्रव्यार्थिकनय नहीं है।।
__ अध्यात्म ग्रन्थों में इन तीन शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषय को शुद्धनिश्चयनय अथवा परमशुद्धनिश्चयनय के विषय के रूप में सैकड़ों जगह वर्णन करते हुए इसी के अनुभव की प्रेरणा दी गई है।
समयसार, गाथा 6 में आत्मा को प्रमत्त-अप्रमत्त भावों से रहित एवं नियमसार, गाथा 50 में औदमिक आदि चारों भावों से भिन्न कहकर एक ज्ञायकभाव को कर्मोपाधियों रहित बताया गया है। इसीप्रकार गाथा 14 में असंयुक्त तथा गाथा 73 में निर्ममत्व विशेषण से आत्मा को कर्मोपाधि रहित कहा गया है। . वर्तमान में प्रचलित प्राचीन भजनों में जो निगोद में, सो ही मुझमें, सो ही मोख मँझार आदि पंक्तियों में भी कर्मोपाधिनिरपेक्ष द्रव्यस्वभाव के ही गीत गाये गये हैं।
पर्याय में चाहे औदयिक भाव हों या क्षायिकभाव; अनन्त दुःख हो या अनन्त सुख; द्रव्यस्वभाव, ज्यों का त्यों, शुद्ध बुद्ध निरंजन रहता है - यही उसका कर्मोपाधिनिरपेक्ष स्वभाव है। 2. उत्पाद-व्ययनिरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय
__ जो नय, उत्पाद-व्यय को गौण करके केवल सत्ता को ग्रहण करता है, उसे आगम में उत्पाद-व्ययनिरपेक्ष सत्ताग्राही शुद्धद्रव्यार्थिकनय कहते हैं।
यद्यपि सत्ता, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कही गई है, तथापि द्रव्यांश/अंशी को उत्पाद-व्यय से रहित त्रिकाली ध्रुव के रूप में भी