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नय- रहस्य
5. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय 6. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय
वहीं पृष्ठ 226 पर इनका संक्षिप्त स्वरूप इसप्रकार बताया गया है
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द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिकनय है तथा शुद्धद्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह शुद्धद्रव्यार्थिकनय है और अशुद्धद्रव्य जिसका प्रयोजन है, वह अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है। सामान्य, गुण, आदि को अन्वयरूप से द्रव्य... द्रव्य - ऐसी व्यवस्था जो करता है, वह अन्वयद्रव्यार्थिक है अर्थात् अविच्छिन्नरूप से चले आते गुणों के प्रवाह में जो द्रव्य की व्यवस्था करता है, उसे ही द्रव्य मानता है, वह अन्वयद्रव्यार्थिकनय है। जिसका अर्थ या प्रयोजन स्वद्रव्यादि को ग्रहण करना है, वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है। जिसका अर्थ- प्रयोजन पर - द्रव्यादि को ग्रहण करना है, वह परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है और जिसका अर्थ या प्रयोजन परमभाव को ग्रहण करना है, वह परमभावग्राहक - द्रव्यार्थिकनय है।
यद्यपि द्रव्यांश और पर्यायांश, छहों द्रव्यों के स्वरूप में विद्यमान हैं, तथापि यहाँ आत्मा को जानना मुख्य प्रयोजन है, अतः आत्मा पर घटित होनेवाले भेदों का वर्णन किया गया है। यहाँ यह बात समझना विशेष महत्त्वपूर्ण है कि द्रव्य को शुद्ध या अशुद्ध किस आधार से कहा गया है?
कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय तथा भेद - कल्पना से निरपेक्षता ही द्रव्य की शुद्धता है तथा इनसे सापेक्षता ही उसकी अशुद्धता है।
अब यहाँ द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 190-198 में समागत द्रव्यार्थिकनय के दस भेदों के नाम, परिभाषा, इनके स्वरूप पर संक्षिप्त विचार किया जा रहा है
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