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नय-रहस्य प्रश्न 2 – यदि आगम के प्रयोजनभूत प्रकरण को अध्यात्म कहते हैं तो अध्यात्म के अतिरिक्त शेष आगम को अप्रयोजनभूत मानना पड़ेगा?
उत्तर - जानने के लिए तो अनन्त ज्ञेय हैं, परन्तु उनमें मोक्षमार्ग के लिए जीवादि सात तत्त्व ही प्रयोजनभूत हैं। यद्यपि जीव-अजीव में तो समस्त लोकालोक समा जाता है, तथापि उन्हें भी इसप्रकार जानना प्रयोजनभूत है, जिससे भेदज्ञान और वीतरागता का पोषण हो।
- यदि सम्पूर्ण जिनागम का ज्ञान प्रयोजनभूत माना जाए तो सम्यग्दर्शन के पूर्व द्वादशांग का पाठी होना अनिवार्य माना जाएगा। पण्डित टोडरमलजी, मोक्षमार्ग प्रकाशक के अध्याय 8 में लिखते हैं - मोक्षमार्ग का मूल उपदेश अध्यात्म ग्रन्थों में है, अतः अध्यात्म शास्त्रों का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। . .. .
प्रश्न 3 - तो क्या आगम ग्रन्थों का अभ्यास करना व्यर्थ है? ..
उत्तर - अध्यात्म भी आगम का ही अंश है और आगम भी अध्यात्म का पोषक है; अतः अध्यात्म ग्रन्थों का अभ्यास भी. आगमाभ्यास ही कहा जाएगा। यदि बुद्धि और समय की प्रचुरता है तो करणानुयोग आदि का अभ्यास भी अवश्य करें, परन्तु अध्यात्म-पोषक दृष्टि से करना ही श्रेयस्कर होगा। यदि समय और बुद्धि कम है तो अध्यात्म को ही प्राथमिकता देना आवश्यक है। .
वस्तुतः आगम और अध्यात्म का मर्म ज्ञानी ही जानते हैं। इस सन्दर्भ में परमार्थ वचनिका में पण्डित बनारसीदासजी के ये विचार ज्ञातव्य हैं - वस्तु का जो स्वभाव है, उसे आगम कहते हैं। आत्मा का जो अधिकार है, उसे अध्यात्म कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव न आगमी, न अध्यात्मी। क्यों? इसलिए कि कथनमात्र तो ग्रन्थ-पाठ के बल से आगम-अध्यात्म का स्वरूप उपदेशमात्र कहता है,