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________________ - नय-रहा 102 नय-रहस्य 3. पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान से प्रभावित होने पर भी कुछ लोग, अपने को निष्पक्ष घोषित करने के चक्कर में, अपने को दोनों पक्षों का समर्थक कहते हैं। जरा विचार कीजिए कि सत्य और असत्य अथवा सोना और पीतल दोनों को एक-सा जानना, निष्पक्षता कैसे हो सकती है। जो जैसा है, उसे वैसा जानकर राग-द्वेष नहीं करना ही सच्ची निष्पक्षता है। वस्तुतः राग-द्वेष ही पक्षपात है और वीतरागता ही निष्पक्षता है। ज्ञान में स्व-पर, हितकारी-अहितकारी, द्रव्य-पर्याय आदि को यथार्थ जानना - यह ज्ञान की वीतरागता है/निष्पक्षता है। बहुत-से लोगों का तथाकथित निष्पक्षता का यही चिन्तन आज वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु और सरागी देव-शास्त्र-गुरु के बारे में है। वे कहते हैं कि किसी को अच्छा-बुरा मानने में पक्षपात है। हम तो निष्पक्ष हैं, इसलिए हम सभी देवों/धर्मों को समान मानते हैं; परन्तु उनकी यह निष्पक्षता भ्रान्ति ही है। वे नहीं जानते कि सब को वोट देने के चक्कर में उनका वोट ही व्यर्थ हो जाएगा। वीतरागी को मोक्षमार्ग में निमित्त जानना और सरागी को मोक्षमार्ग में निमित्त नहीं मानना - पक्षपात नहीं, अपितु सत्य का पक्ष होने से निष्पक्षता है। इसी में प्रयोजन की सिद्धि है। ज्ञानीजन, वीतरागी देव-गुरु को भी अपने हित में निमित्तमात्र जानते हैं, उन्हें हित का कर्ता नहीं मानते; अतः उन्हें निचली भूमिका में उनके प्रति भक्ति का राग आता है, परन्तु सरागी देवादिक के प्रति उन्हें द्वेष नहीं होता, माध्यस्थ भाव रहता है; इसलिए सच्चे देव-गुरु के प्रति भक्ति तथा सरागी देवादिक के समागम से दूर रहने पर भी वे निष्पक्ष हैं, लेकिन जो कुलादिक के आग्रह से यदि सच्चे देव-शास्त्रगुरु के प्रति भी भक्ति-भाव रखते हैं, तो वे भी पक्षपाती ही हैं।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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