________________
जिनागम के अनमोल रत्न]
[79 जदिदा रोगा एक्कम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णउदी। सव्वम्मि दाई देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहिं।।1048।।
यदि एक नेत्र में ही छियानवे रोग होते हैं तो समस्त शरीर में कितने रोग होंगे। (शरीर में पाँच करोड़, अड़सठ लाख, निन्यानवे हजार, पाँच सौ चौरासी रोग होते हैं।) ___ मनुष्यों के इन्द्रियां, यौवन, मति, रूप, तेज, बल और वीर्य ये सब मेघ, बर्फ, फेन, उल्का, सन्ध्या और जल के बुलबुले की तरह अनित्य है।।1054।।
जैसे पीछे लगे व्याघ्र के भय से भागता हुआ कोई मनुष्य एक ऐसे कुंए में गिरा जिसमें सर्प रहता था। उस कूप की दीवार पर एक वृक्ष था, उसकी जड़ पकड़कर वह लटक गया, उस जड़ को चूहे काट रहे थे, किन्तु उस पर मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा था उसमें से मधु की बूंद टपककर उसके ओठों में आती थी। वह संकट भूलकर उसी मधु के बिन्दु के स्वाद में आसक्त हो गया।
उसी मनुष्य की तरह मृत्युरूपी व्याघ्र से भीत प्राणी अनेक दुखरूपी सों से भरे संसार कूप में पड़ा है और आशारूपी जड़ को पकड़ हुए हैं।
किन्तु उस आशारूप जड़ को बहुत से विघ्न रूपी चूहे काट रहे हैं, फिर भी वह निर्लज्ज निर्भय होकर क्षणिक सुख में निमित्त विषयरूपी मधु की बूंद के आस्वाद में डूबा हुआ है।।1057-58-59।। ___इस विषयरूप समुद्र में यौवन रूप जल है, स्त्री का हंसना, चलना, देखना, उसकी लहरें हैं और स्त्रीरूप मगरमच्छ हैं जो इन मगरमच्छों से अछूते रहकर इस समुद्र को पार करते हैं वे धन्य हैं। 1110।।
ये इस प्रकार के विषय मुझे चिरकाल तक प्राप्त हों यह 'आशा' है। ये कभी भी मुझसे अलग न हों इस प्रकार की अभिलाषा तृष्णा' है। परिग्रह में आशक्ति संग' है। ये मेरे भोग्य हैं मैं इनका भोक्ता हूँ ऐसा संकल्प 'ममत्व' है। अत्याशक्ति वह 'मुहूर्त' है। 1175 ।।