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. [जिनागम के अनमोल रत्न सुरतरु चिंतामणिणो, अग्घंण लहंति तस्स पुरिसस्स। जो सुविहि रय जणाणं, धम्माधारं सया देई ।।।3।।
जो पुरूष शास्त्र स्वाध्याय आदि भले आचरण करने वाले जीवों को सदाकाल धर्म का आधार देता है और उनका निर्विघ्न शास्त्र स्वाध्याय होता रहे, ऐसी सामग्री का मेल मिलाता रहता है, उस पुरूष का मूल्यांकन कल्पवृक्ष या चिन्तामणि रत्न से भी नहीं हो सकता है अर्थात् वह पुरूष उनसे भी महान है।
इयरजण संसणाए, धिद्धी उस्सूत्त भासिए ण भयं। हा हा ताण णराणं, दुहाइजइ मुणइ जिणणाहो।।56।।
इतरजनों से प्रशंसा चाहने के लोभ से-मुझे सब अच्छा कहेंगे, इस अभिप्राय से जो जिनसूत्रों के विरूद्ध बोलने से नहीं डरते हैं उन्हें धि:क्कार है। हाय! हाय!! उन जीवों को पर-भव में जो दुख होंगे वे केवली भगवान ही जानते हैं।
मुद्धाण रंजणत्थं, अविहिय तं संकथापि ण करिज्ज। किं कुल वहुणो कत्थवि, थुणंति बेस्साणचरियाई ।।58।।
मूों को प्रसन्न करने के लिये मिथ्यादृष्टियों के विपरीत आचरण की प्रशंसा करना कदापि योग्य नहीं। क्या कुलवधू कभी वेश्या के चरित्र की प्रशंसा करती है? कभी नहीं।
को असुआणं दोसो, जं सुअसुहियाण चेयणा णट्ठा। घिद्धि कम्माण जओ, जिणो वि लद्धो अलद्धत्ति।।6।।
जब जिनवाणी समझने वाले भी बुद्धि नष्ट हो जाने पर कर्मोदयवश अन्यथा आचरण करने लगते हैं तब जिन्हें शास्त्र का ज्ञान ही नहीं है उन्हें क्या दोष दें? अरे! कर्मोदय को धिक्कार हो! धिक्कार हो!! क्योंकि उसके वश होने पर जीव को जिनदेव की प्राप्ति भी अप्राप्ति समान ही है।