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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [59 उसे मूर्ख लोग निगुरा, गुरूद्रोही, दुष्ट इत्यादि वचनों से संबोधित करते हैं, सो यह बड़ा खेद है। सप्पो इक्कं मरणं, कुगुरू अणंताई देइ मरणाई। तो वर सप्पं गहियं, मा कुरू कुगुरू सेवणं भई ।।37। सर्प का काटा तो एक बार ही मरण को प्राप्त होता है; परन्तु कुगुरू के सेवन से मिथ्यात्वादिक की पुष्टि होने से नरक-निगोदादिक में जीव अनंतबार मरण को प्राप्त होता है। इसलिये हे भद्र! सर्प का संग भला है, परन्तु कुगुरू का सेवन भला नहीं है, तू वह मत कर। . णिद्दखिण्णो लोओ, जइ कुवि मग्गेइ रुट्टिया खंडं। कु गुरु संणग बयणे, दक्खिणं हा महामोहो।। यदि कोई रोटी का टुकड़ा भी मांगता है तो लोक में उसे प्रवीणता रहित बावला कहते हैं; परन्तु कुगुरू अनेक प्रकार के परिग्रह की याचना करता है तो भी लोग उसे प्रवीण कहते हैं। सो हाय! हाय!! यह मोह का ही माहात्म्य किं भणिमो किं करिमो, ताण हआसाण घिट्ट दुट्ठाणं। जे दंसिउण लिंगं, खिंचंति णरयम्मि मुद्धजणं।।4।। आचार्य कहते हैं कि अरे ! उन कुगुरूओं को हम क्या कहें? और क्या करें? वे कुगुरू मुनि का बाह्य भेष दिखाकर भोले जीवों को नरक में खींच ले जाते हैं। वे कुगुरू कैसे हैं? जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है अर्थात् कार्य-अकार्य के विवेक से रहित हैं तथा लज्जा रहित हैं; और वे जैसे चाहे बोलते हैं अतः दीठ है, और धर्मात्माओं के प्रति द्वेष रखते हैं, अतः दुष्ट हैं। भावार्थ- जहाँ मिथ्यादृष्टियों का बहुत जोर हो, वहाँ धर्मात्मा पुरूषों को रहना उचित नहीं है। उन्हें तो जिनधर्मियों की संगति में रहना ही उचित है। 48।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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