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जिनागम के अनमोल रल]
(9) उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला विरयाणं अविरइए, जीवे दठूण होई मणतावो।
हा हा कह भव कूवे, बूडंतापिच्छ णचंति।।१।। संयमी जीवों के मन में असंयमी जीवों को देखकर बड़ा संताप होता है कि हाय! हाय!! देखो तो, संसाररूपी कुएं में डूबते हुए भी ये जीव कैसे नाच रहे हैं?।
कुग्गह गह गहियाणं, मुद्धो जो देइ धम्म उवएसो।
तो चम्मासी कुक्कर, वयणम्मि खवेई कप्पूरं।13॥
खोटे आग्रह रूपी ग्राह से (मगर, पिशाच से) ग्रसित जीवों को जो मूर्ख उपदेश देता है वह मांस खाने वाले कुत्ते के मुख में कपूर रखने जैसी चेष्टा करता है। जिनके तीव्र मिथ्यात्व का उदय है उन्हें जिनवाणी नहीं रूचती।
बहुगुण बिज्जाणिलयो, उस्सूत्तभासी तहा बिमुत्तब्बो।
जह बरमणिजुत्तो विहुवि, विग्घयरो बिसयरोलोये।18॥ जिनवाणी से विरूद्ध उपदेश देने वाला पुरूष भले ही क्षमादिक बहुत से गुणों और व्याकरणादिक अनेक विद्याओं का स्थान हो, तो भी वह उसी प्रकार त्याग देने योग्य है जिस प्रकार लोक में श्रेष्ठ मणि सहित विषधर सर्व भी विघ्नकारी होने से त्याज्य ही होता है।
जिण गुण रयण महाणिहि, लभ्रूणवि किंण जाइमिच्छत्तं। अह लद्धेविणिहाणे, कि बिणाण पुणो विदारिदं।125।।
जिनेन्द्र भगवान के गुणरूपी रत्नों की महानिधि प्राप्त करके भी मिथ्यात्व क्यों नहीं जाता है? यह महान आश्चर्य है! अथवा-निधान पाकर के भी कृपण पुरूष तो दरिद्री ही रहता है, इसमें क्या आश्चर्य है? ।
गुरुणो भट्टा जाया, सद्दे थुणि ऊण लिंति दाणइं। दुण्णिवि अमुणि असारा, दूसम समयम्मि बुड्डंति।।31।।