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[जिनागम के अनमोल रत्न से भिन्न मानता है और मरण के अवसर को एक वस्त्र छोड़कर अन्य वस्त्र के ग्रहण के समान समझकर अपने को निर्भय मानता है।
पूर्वं दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत्। स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत्।।80।। जिसको आत्मदर्शन हुआ है ऐसे अन्तरात्मा को प्रथम अवस्था में जगत उन्मत्तवत्-पागल जैसा भाषित होता है, तत्पश्चात् आत्मस्वरूप के अभ्यास में परिपक्व बुद्धि वाले अन्तरात्मा को यह जगत काष्ठ-पाषाणवत् (निश्चेष्ट) भाषित होता है। ... बिदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते ।
देहात्मदृष्टिञ्जतात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते।।4।।
देहात्म बुद्धि-बहिरात्मा सर्व शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी तथा जाग्रत होने पर भी कर्म-बंधन से मुक्त नहीं होता, किन्तु भेदज्ञानी-अन्तरात्मा निद्रावस्था में या उन्मत्त अवस्था में होने पर भी कर्म-बंधन से मुक्त होता हैविशेष कर्मों की निर्जरा करता है।
उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वाऽऽत्मानमात्वैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः।।98।।
आत्मा अपने आत्मा की ही उपासना करके परमात्मा हो जाता है; जिस प्रकार बांस का वृक्ष अपने को अपने से ही घर्षण करके अग्निरूप हो जाता
अदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ।
तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः।।102।। जिस ज्ञान की दुःखरहित भावना की जाती है, वह तो उपसर्गादि दुख आ पड़ने पर नष्ट हो जाता है, अतः मुनि-अन्तरात्मा योगी अपनी शक्ति अनुसार काय-क्लेशादिरूप दुःखों से आत्मा की देहादिक से भिन्न भावना भावें।