________________
50]
[जिनागम के अनमोल रत्न न मैं बालक हूँ, न बूढ़ा हूँ, न जबान हूँ, ये सब बातें पुद्गल में ही पाई जाती हैं। 29 ।।
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः। उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा।। सब पुद्गल को मोह से, भोग-भोगकर त्याग। मैं ज्ञानी करता नहीं, उस उच्छिष्ट में राग।। मोह से मैंने सभी पुद्गलों को बार-बार भोगा और छोड़ा। भोगभोगकर छोड़ दिया, अब जूठन के लिये उन पदार्थों में मेरी क्या चाहना हो सकती है? अर्थात् उन भोगों के प्रति मेरी चाहना-इच्छा ही नहीं है। 30 ।।
स्वस्मिन सदभिलाषित्वादभीष्ट ज्ञायकत्वकः। स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः।। आपहि निज हित चाहता, आपहि ज्ञाता होय। आपहि निज हित प्रेरता, निज गुरु आपहि होय।। जब आत्मा स्वयं ही अपने कल्याण की अभिलाषा करता है, अपने द्वारा चाहे हुए मोक्ष-सुख के उपायों को जतलाने वाला भी है, तथा मोक्ष-सुख के उपायों में अपने आपको प्रवर्तन कराने वाला है, इसलिये अपना गुरु (आत्मा) आप ही है।।34।।
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत् ।। मूर्ख न ज्ञानी हो सके, ज्ञानी मूर्ख न होय। निमित्तमात्र पर जान, जिमि गति धर्म तै होय।।
अज्ञानी को ज्ञानीनहीं, बनाया जा सकता और ज्ञानी को अज्ञानी नहीं किया जा सकता, अन्यवस्तु तो गति में धर्मास्तिकाय की तरह निमित्तमात्र है। 35।