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जिनागम के अनमोल रत्न]
परकी विपदा देखता, अपनी देखे नाहिं। जलते पशु जा वन विष, जड़ तरुपर ठहराहिं। जिसमें अनेकों हिरण दावानल की ज्वाला से जल रहे हैं ऐसे जंगल के मध्य में वृक्ष पर बैठे हुए मनुष्य की तरह यह संसारी प्राणी दूसरों की तरह अपने ऊपर आने वाली विपत्तियों का ख्याल नहीं करता।।14।।
आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं, कालस्य निर्गमम् । वाञ्छतां धनिनांमिष्टं, जीवितात्सुतरांधनम्।। आयुक्षय धनवृद्धि को, कारण काल प्रमान। चाहत हैं धनवान धन, प्राणनितें अधिकान। .
काल का व्यतीत होना, आयु के क्षय का कारण है और कालान्तर के माफिक ब्याज के बढ़ने का कारण है, ऐसे काल के व्यतीत होने को जो चाहते हैं, उन्हें समझना चाहिये कि अपने जीवन से धन ज्यादा इष्ट है। 15 ।।
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः। स्वशरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति।। पुण्य हेतु दानादिको, निर्धन धन संचेय। . . स्नान हेतु निज तन कुधी, कीचड़ से लिम्पेय।।
जो निर्धन, पुण्य प्राप्ति होगी इसलिये दान करने के लिये धन कमाता है या जोड़ता है, वह "स्नान कर लूंगा" यह सोचकर अपने शरीर को कीचड़ से लपेटता है।।16।।
न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे ब्याधिः कुतो ब्यथा। नाहं वालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले।। मरण रोग मो मैं नहीं, ताक् सदा निशंक ।
बाल तरुण नहिं वृद्ध हूं, ये सब पुद्गल अंक।। मेरी मृत्यु नहीं तब डर किसका? मुझे ब्याधि नहीं, तब पीड़ा कैसे?