________________
[33
जिनागम के अनमोल रत्न]
हे आत्मन्! यह व्यवहार मार्ग चिन्ता, क्लेश, कषाय और शोक से जटिल है। देह आदि द्वारा साध्य होने से पराधीन है, कर्मों के लाने में कारण है। अत्यन्त विकट, भय और आशा से व्याप्त है तथा ब्यामोह कराने वाला है, परन्तु शुद्धनिश्चयनयरूप मार्ग में यह कोई विपत्ति नहीं है, इसलिये तू व्यवहारनय को त्यागकर शुद्धनिश्चयनयरूप मार्ग का अवलंबन कर, क्योंकि यह इस लोक की क्या बात? परलोक में भी सुख का देने वाला है और समस्त दोषों से रहित निर्दोष है।।7-5।।
न भक्तवृंदैर्न च शिष्यबगैर्न पुस्तकाद्यैर्न च देहमुख्यैः। न कर्मणा केन ममास्ति कार्यं विशुद्धचित्यस्तु लयः सदैव।।
मेरा मन 'शुद्धचिद्रूप' की प्राप्ति के लिये उत्सुक है, इसलिये न तो मुझे संसार में भक्तों की आवश्यकता है, न शिष्यवर्ग, पुस्तक, देह आदि से ही कुछ प्रयोजन है एवं न मुझे कोई काम करना ही अभीष्ट है। केवल मेरी यही कामना है कि मेरी परिणति सदा शुद्धचिद्रूप' में ही लीन रहे ।।7-6।। - देश, राष्ट्र पुर-गाँव, जनसमुदाय, धन, वन, ब्राह्मण आदि वर्गों का पक्षपात, जाति, संबंधी, कुल, परिवार भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, हृदय और वाणी ये सब पदार्थ विकार करने वाले हैं। इनको अपना मानकर स्मरण करने से ही चित्त, 'शुद्धचिद्रूप' की ओर से हठ जाता है-चंचल हो उठता है तथा मैं कर्ता और कारण आदि हूँ इत्यादि कारकों के स्वीकार करने से भी चित्त में चल-विचलता उत्पन्न हो जाती है, इसलिये स्वाभाविक गुणों के भण्डार 'शुद्धचिद्रूप' को ही मैं निर्विभागरूप से कर्ता-कारण का कुछ भी भेद न कर स्मरण मनन ध्यान करता हूँ।।8-3।।
मोह के मद में मत्त बहुत से मनुष्य कीर्ति प्राप्त होने से ही अपना जन्म धन्य समझते हैं। अनेक इन्द्रियजन्य सुख, सुन्दर स्त्री, धन, पुत्र, उत्तम सेवक, स्वामीपना और उत्तम वाहनों की प्राप्ति से अपना जन्म सफल मानते हैं और बहुतों को बल, उत्तम मित्र, विद्वत्ता और मनोहर रूप आदि की प्राप्ति से