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[जिनागम के अनमोल रत्न
जिस समय स्व और पर का भेद - विज्ञान हो जाता है उस समय शुद्धात्मदृष्टि से रहित यह जगत चित्त में ऐसा जान पड़ने लगता है मानों यह उन्मत्त और भ्रान्त है। इसके दोनों नेत्र बन्द हो गये हैं, यह दिग्विमूढ़ हो गया है, गाढ़ निद्रा में सो रहा है, मन रहित असैनी मूर्छा से बेहोश और जल के प्रवाह में बहा चला जा रहा है, बालक के समान अज्ञानी है, मोहरूपी धूर्तों ने व्याकुल बना दिया है, बाबला और अपना सेवक बना लिया है । 16-2 ।। शापं वा कलयंति वस्तुहरणं चूर्णं बधं ताडनं, छेदं भेदगदादि हास्यदहनं निंदाऽऽपदापीडनं । पव्यग्न्यब्ध्यगपंककू पपवनभूक्षेपापमानं भयं, केचिच्चेत् कलयंतु शुद्धपरम ब्रह्मस्मृतावन्वहं । । जिस समय मैं शुद्धचिद्रूप के चिंतवन में लीन होऊं उस समय दुष्ट मनुष्य यदि मुझे निरंतर शाप देवें तो दो, मेरी चीज चुरायें तो चुराओ मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े करें तो करो, ताड़े छेदै, मेरे रोग उत्पन्न कर हंसी करें, जलावें, निंदा करें, आपत्ति और पीड़ा करें तो करो, सिर पर वज्र डालें तो डालो, अग्नि, समुद्र, पर्वत, कीचड़, कुंआ, वन और पृथ्वी पर फैकें तो फेको, अपमान करें तो करो, भय करें तो करो, मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं हो सकता क्योंकि वे मेरी आत्मा को तनिक भी नुकसान नहीं पहुँचा सकते । 16-411
किसी काल और किसी देश में 'शुद्धचिद्रूप' से बढ़कर कोई भी पदार्थ उत्तम नहीं है ऐसा मुझे पूर्ण निश्चय है, इसलिये मैं इस 'शुद्धचिद्रूप' के लिये प्रति समय अनन्तबार नमस्कार करता हूँ । 16-8 ।। निश्चलोंऽगी यदा शुद्धचिद्रूपोऽहमिति स्मृतौ । तदैव भावमुक्तिः स्यात् क्रमेण द्रव्यमुक्ति भाग ।। जिस समय निश्चल मन से यह स्मरण किया जाता है कि 'मैं शुद्धचिद्रूप
हूँ' भाव मोक्ष उसी समय हो जाता है और द्रव्यमोक्ष क्रम-क्रम से होता चला
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जाता है । 16-20 ।। .
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