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________________ 222] [जिनागम के अनमोल रत्न रैनके जगैय्याकौं विलोकि चोर रोस करें, मिथ्यामती रोस करै सुनत सिद्धंतकौ । हंसकौं विलोकि जैसैं काग मन रोस करै, अभिमानी रोस करै देखत महंतकौ । सुकविकौं देखि ज्यौं कुकवि मन रोस करै, - त्यही दुरजन रोस करै देखि संतकौं ।।२२।। पुनः (सवैया इकतीसा) सरलकौं सठ कहै वकताकौं धीठ कहै , विनै करै तासौं कहै धनकौं अधीन है। छमीकौं निबल कहै दमीकौं अदत्ति कहैं, मधुर वचन बोल तासौं कहै दीन है ।। धरमीकौं दंभी निसप्रेहीकौं गुमानी कहैं , तिसना घटावै तासौं कहै भागहीन है। जहाँ साधुगुन देखै तिन्हकौं लगावै दोष, . ऐसौ कछु दुर्जनकौ हिरदौ मलीन है ।।23।। (मूढ़ मनुष्य विषयोंसे विरक्त नहीं होते) रविकै उदोत अस्त होत दिन दिन प्रति , अंजुलिकै जीवन ज्यौं जीवन घटतु है। कालकै ग्रसत छिन छिन होत छीन तन , आरे के चलत मानौ काठ सौ कटतु है ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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