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जिनागम के अनमोल रत्न]
[211 दव्यतो भोजकः कश्चिद्भावतोऽस्ति त्वभोजकः। भावतो भोजकस्त्वन्यो द्रव्यतोऽस्ति त्वभोजकः।।5-55।।
अर्थ :- कोई द्रव्य से भोक्ता है भाव से अभोक्ता है, अन्य कोई भाव से भोक्ता होता है द्रव्य से अभोक्ता है।
दव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः। भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं पियासुभि।।5-56।।
अर्थ :- जो द्रव्य से निवृत्त है-अभोक्ता है, वह व्यवहारियों के द्वारा पूज्य है, तथा जो भाव से निवृत्त है, अभोक्ता है, वह मोक्ष के पिपासुओं के द्वारा-मुमुक्षुओं द्वारा पूज्य होता है।
विचित्रे चरणाचारे वर्तमानोऽपि संयतः। जिनागममजानानः सदृशो गतचक्षुषः।।6-15।।
अर्थ :- अनेक प्रकार के चारित्राचार में प्रवर्तता हुआ जो संयमी यदि जिनागम को नहीं जानता तो वह चक्षुहीन के समान-अन्धपुरूष के समान आचरण करने वाला है।
योऽन्यत्र वीक्षते देवं देहस्थे परमात्मनि। सोऽन्ने सिद्धे गृहे शङ्के भिक्षां भ्रमति मूढधीः।।6-22 ।।
अर्थ :- परमात्मदेव देह में स्थित होने पर भी जो देव को अन्यत्र खोजते हैं, मैं ऐसा मानता हूँ कि, वे मूढबुद्धि घर में भोजन तैयार होने पर भी भिक्षा के लिये अन्यत्र भटकते हैं।
अध्येतव्यं स्तिमितमनसा ध्येयमाराधनीयम्, पृच्छयं श्रव्यं भवति विदुषाभ्यस्यमावर्जनीयम्। वेद्यं गद्यं किमपि तदिह प्रार्थनीयं विनेयम्, दृश्यं स्पृश्यं प्रभवति यतः सर्वदात्मस्थिरत्वम्।।6-49 ।। अर्थ :- इस लोक में विद्वान के द्वारा वह कोई भी पदार्थ स्थिर चित्त