________________
210]
[जिनागम के अनमोल रत्न (39) योगसार-प्राभूत घातिकर्मक्षयोत्पन्नं यदूपं परमात्मनः। श्रद्धते भक्तितो भव्यो नाभव्यो भववर्धकः।।1-31।।
अर्थ :- घाती कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला आत्मा का जो परम रूप है उसे भव्यजीव भक्ति से श्रद्धान करता है, अभव्य जीव नहीं; कारण कि वह भववर्धक होता है, इसलिये आत्मा से सदा विमुख रहता है।
आत्मा स्वात्मविचारहीरागी भूतचेतनैः। निरवधश्रुतेनापि केवलेनेव बुध्यते।1-34।।
अर्थ :- अपने आत्मा के विचार में निपुण राग रहित जीवों द्वारा निर्दोष श्रुतज्ञान से भी आत्मा केवलज्ञान समान जाना जाता है।
यो विहायात्मनो रूपं सेवते परमेष्ठिनः। स बघ्नाति परं पुण्यं न कर्मक्षयमश्नुते ।।1-48।।
अर्थ :- जो आत्मा के रूप को छोड़कर पंचपरमेष्ठी की सेवा करते हैंअरहंतादि का ध्यान करते हैं, वे उत्कृष्ट पुण्य तो बांधते हैं परन्तु पूर्ण कर्मों का क्षय नहीं करते। परद्रव्यीभवत्यात्मा
परद्रव्यविचिन्तकः। क्षिप्रमात्मत्वमायाति विविक्तात्मविचिन्तकाः।।1-51।।
अर्थ :- परद्रव्य की चिन्ता में मग्न रहने वाला आत्मा परद्रव्य जैसा हो जाता है और शुद्ध आत्मा के ध्यान में मग्न रहने वाला आत्मा शीघ्र अपने आत्मतत्त्व को-अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
पश्यन्तो जन्मकान्तारे प्रवेशं पुण्य-पापतः। विशेष प्रतिपद्यन्ते न तयोः शुद्धबुद्धयाः।।4-40।।
अर्थ :- पुण्य-पाप के कारण संसार-वन में प्रवेश होता है, ऐसा देखने वाली जो शुद्ध बुद्धि है वह पुण्य-पाप में भेद नहीं करती-दोनों को समान समझती है।