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[जिनागम के अनमोल रत्न
(37) प्रवचनसार चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।7।। चारित्र निश्चय धर्म है , जो धर्म वह 'शम' है कहा । है मोह क्षोभ विहीन 'शम', परिणाम निश्चय स्वंय का।। धम्मेण परिणदप्या अप्पा जदि शुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिब्बाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ।।11।। हो धर्म परिणत आत्मा , शुद्धोपयोगी मोक्ष सुख । यदि हो तथा उपयोग शुभमय , प्राप्त करते स्वर्ग सुख । अतिशय स्वतः उत्पन्न अनुपम , विषय रहित अनन्त है। शुद्धोपयोग प्रसिद्ध जीवों के , अखण्डित सुक्ख है ।13। आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सब्बगयं ।।23।। है जीव ज्ञान प्रमाण वर्णित, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है। हैं ज्ञेय लोकालोक इससे, सर्वगत भी ज्ञान है ।। पुण्यफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा।।45।। हैं पुण्यफल अरहंत उनकी , क्रिया औदयिकी कही । मोहादि विरहित हैं इसी से , क्षायिकी मानी गई । सुर असुर नरपति सहज , इन्द्रिय दुःख से पीड़ित सभी । सहनीय ना दुख अतः रमते , रम्य विषयों में सभी ।।3।। है जिन्हें विषयों में रती ,जानो वे स्वाभाविक दुखी । यदिदुःख स्वाभाविक नहीं, विषयार्थन व्यापार भी ।।64।।