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जिनागम के अनमोल रत्न]
[197 शब्द शास्त्र का विस्तार तो अपार है और यदि आयु भी अपार हो, तब तो उन सबका सुविचार कर्तव्य है; परन्तु आयु तो अति अल्प है तथा अकेले शब्द-शास्त्र से तो कोई मुक्ति नहीं हो जाती; अतः काल को व्यर्थ न गंवा करके प्रयोजनभूत तत्त्व में बुद्धि लगाना चाहिये।।68 ।।
हे भव्य! अति सूक्ष्म अगुरूलघु आदि धर्म आत्मा में ही हैं, केवलज्ञान तथा अतिशय निजदर्शन भी आत्मा में ही है और अनन्त आत्मतेज रूप वीर्य भी आत्मा में ही है; परन्तु संसार में जिसकी रति है, वह जीव अपने ऐसे अनंत वैभव को देख नहीं पाता।।78 ।।
एकाशन-उपवास-व्रत-शील-तप आदि से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल मुक्त स्वरूप आनंदकारी भगवान आत्मा के ध्यान से क्षणमात्र में प्राप्त हो जायेगा।।82 ।। ____ मोक्षार्थी सज्जन के लिये 'आत्मा' ये दो अक्षर ही बस हैं; उसमें तन्मय होने वाले को मोक्षसुख हाथ में ही है।।87।।
___ जीव जब निजस्वरूप को देख पाता है, तब बहुत कष्ट से उपार्जित किये हुए रत्नादि वैभवों को भी इस प्रकार छोड़ देता है, जैसे कुत्ती का दूध ।।94 ।।
अष्टोत्तर-शत (108) पदवाली इस रचना में प्रतिपाद्य-वस्तु उत्कृष्ट सार में सार आत्मतत्त्व है, उसको जो जानेगा-मानेगा, वह तीसरे भव में या अधिक से अधिक आठ भव में मोक्ष को पावेगा।
जइ पउमणदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विवोहइ तो समणा कह सुमग्गं पयाणति ।। अर्थ :- श्री सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुए दिव्यज्ञान द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथ ने बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते? (दर्शनसार)
- हे कुन्दकुन्दादि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधान में इस पामर को परम उपकारभूत हुए हैं। उसके लिये में आपको अत्यंत भक्तिपूर्वक | नमस्कार करता हूँ।
- श्रीमद् राजचन्दजी