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[जिनागम के अनमोल रत्न विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन् पश्यषण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्मिन्नधाम्नो,
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः।।34।। हे भव्य! तुझे अन्य व्यर्थ ही कोलाहल करने से क्या लाभ है? तू इस कोलाहल से विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल लीन होकर देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख कि ऐसा करने से अपने हृदय सरोवर में, जिसका तेज, प्रताप, प्रकाश पुद्गल से भिन्न है ऐसे उस आत्मा की प्राप्ति नहीं होती है या होती है।
वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा, भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैबांतस्तत्त्वतः
पश्यतोऽमी, नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।7।।
जो वर्णादिक अथवा रागमोहादिक भाव कहे वे सब ही इस पुरूष (आत्मा) से भिन्न हैं इसलिये अन्तर्दृष्टि से देखने वाले को यह सब दिखाई नहीं देते, मात्र एक सर्वोपरि तत्व ही दिखाई देता है-केवल एक चैतन्य भाव स्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखाई देता है।
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नंन वस्तुतया।।।1।।
जो परिणमित होता है सो कर्ता है, जो परिणाम है सो कर्म है, और जो परिणति है सो क्रिया है, यह तीनों वस्तुरूप से भिन्न नहीं हैं।
एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य। एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः।।52 ।। वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, एक के ही सदा परिणाम होते