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जिनागम के अनमोल रत्न]
[113 यदि यह पेटरूपी पिटारी प्राणियों के मान को नष्ट करने वाली न होती तो कौन अपना मान खोकर किसके सामने दीन-वचन बोलता? |15-7।।
यहाँ निन्दित दुर्जन संगति प्राणियों के जिस दोष को करती है उसको करने के लिये न भूख से पीड़ित व्याघ्र समर्थ है, न क्रोध को प्राप्त हुआ आशीविष सर्प समर्थ है, न बल वीर्य एवं बुद्धि से सम्पन्न शत्रु समर्थ है, न उन्मत्त हाथी समर्थ है, न राजा समर्थ है और न उद्धत सिंह भी समर्थ है।।17-2।।
व्याघ्र दुष्ट हाथी और सर्पो के संयोग के भय को उत्पन्न करने वाले वन में रहना अच्छा है, प्रलयकालीन वायु से उठती हुई भयानक तरंगों से व्याप्त समुद्र में डूब जाना अच्छा है और समस्त संसार को जलाने वाली ज्वालायुक्त अग्नि की शरण में जाना कहीं अच्छा है; परन्तु तीनों लोक के बीच में रहने वाले समस्त दोषों के जनक दुर्जनों के मध्य में रहना अच्छा नहीं है।।17-3।।
जो दुर्जन कुत्ते के बच्चे के समान दूसरों के प्रति भोंकने में उद्यत रहता है, सर्प के समान छिद्र को ढूंढता है, परमाणु के समान अग्राह्य है, मृदंग के समान दो मुखों से सहित है, गिरगिट के समान अनेक रूपवाला है तथा सर्पराज के समान कुटिल है, वह अनेक दोषों का स्थानभूत दुर्जन किसके चित्त को दुखी नहीं करता है? सभी के मन को खिन्न करता है।।17-10।। ___कदाचित् सूर्य शीतल हो जाये, चन्द्रमा उष्ण हो जाये, गाय के सींग से दूध निकलने लग जाये, विष अमृत हो जाये, अमृत से विष वेल उत्पन्न हो जाये, अंगार से श्वेतता आविर्भूत हो जाये, अग्नि से जल प्रगट हो जाये, जल से अग्नि उत्पन्न हो जाये और कदाचित् नीम से स्वादिष्ट रस प्रगट हो जाये; परन्तु दुष्टबुद्धि दुर्जन से कभी सज्जन पुरूषों को प्रशस्त वाक्य उपलब्ध नहीं हो सकता है। 17-17।।
जिस प्रकार कौवे हाथी के मुक्तासमूह को छोड़कर माँस को ग्रहण करते हैं, जिस प्रकार मक्खियाँ चन्दन को छोड़कर दुर्गन्धयुक्त सड़े-गले पदार्थ पर जाती हैं व वहाँ नाश को प्राप्त होती हैं, तथा जिस प्रकार कुत्ता