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मानो या न मानी ।
प्रा. सौ.लीलावती मैन. जैन धार्मिक समाज में जितनी उपजातियाँ,उससे अधिक पंथ भेदों की भरमार हो गयी है। इससे आगमप्रणीत वचनों में,अर्थों में भी हेरफेर होने लगे हैं। एक तरफ नारे लगाये जाते हैं, 'सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं ! सर्वज्ञ प्रणीत वचनों के आगे कुछ नहीं। आगम ही सत्य है। आगम में भूल नहीं होनी चाहिए। ...' इ. इ. ....जी हाँ! हमें भी यही सब कुछ मंजूर है। पता नहीं कौन सही है,कौन गलत?आगमप्रणीत वचनों का अर्थ लगाना एक कठिन काम है। मर्मज्ञ ही उसका मर्म जान सकता है। आखिर आगम को जानने का साधन ग्रंथ ही हैं । अब . ग्रंथों के बारे में भी बड़े विवाद मचे हुए हैं। फलाँ ग्रंथ आगमप्रणीत है ही नहीं ! कहकर कुछ ग्रंथ बहिष्कृत भी हो जाते है।
अ कहता है ब आगमप्रणीत नहीं है, गलत है। ब कहता है- मैं ही सही हूँ अ गलत है। बेचारा आम आदमी उलझन में पड़ जाता है।आगम को समझना भी एक समस्या है। क्यों कि ग्रंथों-शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है और शब्द तो पुद्गल की पर्याय है। वक्ता/लेखक के,जीव के सारे भाव शब्दों में कहाँ व्यक्त हो पाते है? फिर हम संसारी जीवों के ज्ञान के उघाड़ की भी पामरता है। कुछ पुरुषार्थ की भी कमी है। जिसने जितना समझा, जिस दृष्टि से, जिस नय से समझा, उसकी नजर में वही सही होता है। कहीं हम सारे सात अंधे तो नहीं है?एक एक ही अवयव पकड़कर उसी को हाथी समझ रहे हैं? क्या अनेकांत से ऐसा माने लें कि यह भी सही हो सकता है और वह (सही)भी हो सकता है?
समस्या यह है कि,अविरत सम्यग्दृष्टि को-चतुर्थ गुणस्थान में-शुद्धोपयोग/शुद्धात्मा - नुभूति होती है या नहीं?कोई कहता हैं, होतो है, उन्होंने अनेकों प्रमाण आगम ग्रंथों से निकालकर दिखाये। वे भी तो पूर्वाचार्यों के ग्रंथों से ही उद्धृत हैं न ? कोई उसे नहीं मानता। वे भी अपने प्रमाण बताते हैं।.. अब समस्या यह है कि क्या आगम में दोनों बातें हैं? ऐसा कैसे हो सकता हैं? सत्य तो एकही है और वही आगम है। तो कौनसा सही माना जाये? ___ कोई कहता है कि इनके पहले पूर्वाचार्यों ने ऐसा-ऐसा लिखा था। ये तो बादमें हुए हैं।'....तो क्या इतिहास के परवर्ती काल में लिखा ग्रंथ प्रामाणिक नहीं हो सकता? केवल इतिहास की प्राचीनता ही प्रामाणिक मान ली जाये? पूर्वकाल में और परवर्ती काल में जो ग्रंथ लिखे गये वे भी तो उन संसारी जीवों ने ही लिखे हैं, इनके या उनके ज्ञान के उघाड़ के पूर्णता की क्या कोई कसौटी है? वे भी तो भाषा के माध्यम से भावानुवादक मात्र थे । क्या सारे भाव उनकी पकड़ में आये होंगे?अगर उनसे मूल में कहीं भाव पकड़ने में भूल हो गयी हो तो वही भूल परंपरा के प्रवाह में चल पड़ी? कदाचित् बढ़ती गयी? तो फिर कसौटी भाव पकड़ने की होनी चाहिए या प्राचीनता की? क्या वस्तु सत्स्वरूप का, सत्यता का निर्णय केवल काल के आधार पर हो सकता है? तब यह, सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि किसो