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समाधि-साधना और सिद्धि
नरक
यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तर मात्र हैं, पुराना मैला -कुचैला वस्त्र उतारकर नया वस्त्र धारण करने के समान है । परन्तु जिसने जीवन भर पापाचरण ही किया हो, आर्त - रौद्रध्यान ही किया हो, निगोद जाने की तैयारी ही की हो, उसका तो रहा-सहा पुण्य भी अब क्षीण हो रहा है, उस अज्ञानी और अभागे का दुःख कौन दूर कर सकता है ? अब उसके मरण सुधरने का भी अवसर समाप्त हो गया है; क्योंकि उसकी तो अब गति के अनुसार मति को बिगड़ना ही हैं।
सम्यग्दृष्टि या तत्त्वज्ञानी को देह में आत्मबुद्धि नहीं रहती । वह देह की नश्वरता, क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होता है। वह जानता है, विचारता है कि -
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"नौ दरवाजे का पींजरा, तामें सुआ समाय । उड़वे कौ अचरज नहीं, अचरज रहवे माँहि ॥' अतः उसे मुख्यतया तो मृत्युभय नहीं होता । किन्तु कदाचित् यह भी संभव है कि सम्यग्दृष्टि भी मिथ्यादृष्टियों की तरह आँसू बहाये । पुराणों में भी ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं- रामचन्द्रजी क्षायिक सम्यदृष्टि थे, तद्भव मोक्षगामी थे; फिर भी छह महीने तक लक्ष्मण के शव को कंधे पर ढोते फिरे |
कविवर बनारसीदास की मरणासन्न विपन्न दशा देखकर लोगों ने यहाँ तक कहना प्रारंभ कर दिया था कि - "पता नहीं इनके प्राण किस मोह-माया में अटके हैं? लोगों की इस टीका-टिप्पणी को सुनकर उन्होंने स्लेट पट्टी माँगी और उस पर लिखा
ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना । प्रगट्यो रूप स्वरूप अनंत सु सोहना ॥ जा परजै को अंत सत्यकरि जानना । चले बनारसी दास फेरि नहिं आवना ।।
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