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[५७] नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल पुष्प चरु दीपक धरै । धूप फल ले स्वर्ण भाजन अर्घ लैं शिवतिय वरै ॥ इन्द्र चन्द्र . नरेन्द्र पूजित अखयनिधि दायक सदा ।
अक्षीण-महानसऋद्धि-धर मुनि पूजिहों मैं सर्वदा ॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
अथ प्रत्येक पूजा .
(सोरठा) द्विविध प्रकार सुजानि, अक्षीणमहानसऋद्धि यह ।
होय पापकी हानि, तो धारक मुनिवर यजत ॥ ॐ ह्रीं द्विविध-प्रकार-अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्व०
(कुसुमलता छन्द) अहार करै जाके घर मुनिवर, ता दिन अहार अटूट हो जाई । चक्रवर्ति-सेना सब जीमें, तो भी वा दिन टूटत नाहीं॥ वे अक्षीणमहानस ऋद्धिधर यतिवर बन्दों शीश नमाई । तिनके पद पूजत जो अहनिशि नवनिधि हो ताकै घर माहीं ॥१॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । च्यार हाथ घर माहीं मुनिवर तिष्ठत सब जीवन सुखदाई । ता थानक इन्द्रादिक सब अरु चक्रवर्ति की सैन्य समाई ॥ भीर जहां नहिं होत सर्व जन सुखमय तिष्ठत ता मधि भाई। अक्षीणमहानस ऋद्धि-धार गुरु तिनकों पूजों मन वच काई ॥२॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा) जो ऐसी ऋद्धि को धरे, श्रीऋषिराज महान ।
तिनको पूजों अर्घ दे, देहु यथारथ ज्ञान ॥ ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्व०