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________________ इन्द्र चन्द्र नरेन्द्र पूजित अखयनिधि दायक सदा। अक्षीण-महानसऋद्धि-धर मुनि पूजिहों मैं सर्वदा ॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो जलम् निर्वपामीति स्वाहा। काश्मीर चन्दन केलिनन्दन घसत परिमल दिग महै । अलि गुंज करत दिगन्तरालैं पूजतें भव-तप जहै ॥ इन्द्र०॥ । — ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सित अखित चन्द्रमरीचिका सम अति सुगन्धित पावना । भरि थाल कणमय अखयपदकों चरन-कमल चढावना ॥ इन्द्र०॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। पंचवरण प्रसून सुन्दर गन्धतें मधुकर भ्रमें। सो लेय मुनिपदको चहोडें समरको छिनमें दमें ॥ इन्द्र० ॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। घेवर सु बावर मोदकादिक कनकथाल भराइये । चरु सद्यते मुनि-चरण पूर्जे क्षुधारोग नसाइये ॥ इन्द्र० ॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। दीप मणिमय ज्योति सुन्दर धूम्रवर्जित सोहने । तम मोहपटल विध्वंस कारण चरण युग मुनि अरचने ॥ इन्द्र०॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धूप दशविधि अगनिके संग स्वर्ण धूपायन भरें । धूम्र मिस वसु कर्म नाशै भविकजन जय जय करें ॥ इन्द्र०॥ ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो धूपम् निर्वपामीति स्वाहा। . दाख श्रीफल चारु पूंगी स्वर्ण थाल भराइये। श्रीऋषीश्वर पूजते ही मुक्ति के फल पाइये ॥ इन्द्र०॥ . ॐ ह्रीं अक्षीण-महानस-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
SR No.007149
Book TitleChousath Ruddhi Poojan Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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