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[४२] एक बरस काउतसर्ग धारै अचल अंग चल आसन नाहीं । तीन लोक चिट्टी अंगुलतें ऊँच नीच बलतें जुही कराई ॥ गर्व करै नहिं ऐसे बलको वही मुनीश्वर शिव सुखदाई । कायबला यह ऋद्धिधार ऋषि तिन्हें पूजि हैं शीष नमाई ॥३॥ ॐ ह्रीं कायबल-ऋद्धि-धारक-सर्व मुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(सोरठा) ऐसी वलऋद्धि धार, जे मुनि ढाई द्वीपमें । तिनकी पूजन सार, करिहों अर्घ चढायकें ।।
जयमाला
(सोरठा) गुणको नाहीं पार बलऋधि-धारी मुनिनको । पढौं अबै जयमाल, भक्ति थकी वाचाल हो ॥१॥
(दोहा—ढाल हमारी करुणा ल्यो जिनराज) . बलऋद्धि-धर मुनिराजके, चरण कमल सुखदाय । बारवार विनती करो, मन वच शीष नवाय,
हमारी करुणा ल्यो ऋषिराज ॥ थावर जंगम जीवके, रक्षक हैं मुनिराय ।। मोहि कर्म दुख देत हैं इनतें क्यों न छुडाय ॥ हमारी० ॥३॥ राज ऋद्धि तज बन गए, धर्यो ध्यान चिद्रूप । ऋद्धि आय चरणा लगी, नमन करत सव भूप ॥ हमारी० ॥४॥ तपगज चढि रण-भूमि में, क्षमा खडग कर धार । करम अरी की जय करी, शांति ध्वजा करि लार ॥ हमारी० ॥५॥ निराभरण तन अति लसै, निर अंवर निरदोष ।। नगन दिगंबर रूप है, सकल गणनिको कोष ॥ हमारी० ॥६॥