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________________ कविवर धानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 85: सम्प्रज्ञात समाधि उस समाधि को कहते हैं, जिसमें ध्येय विषय का स्पष्ट ज्ञान रहता हो। सम्प्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि कहते हैं। इसका कारण यह है कि इस समाधि में चित्त एक वस्तु पर केन्द्रित रहता है, जिसके साथ उसकी तादात्म्यता रहती है। चूंकि समाधि के ध्येय विषय की निरन्तर भिन्नता रहती है। इसलिए इस भिन्नता के आधार पर चार प्रकार की सम्प्रज्ञात समाधि की व्याख्या हुई है। . (1) सवितर्क समाधि-यह समाधि का वह रूप है, जिसमें स्थूल विषय पर ध्यान लगाया जाता है। इस समाधि का उदाहरण मूर्ति पर ध्यान जमाना कहा जा सकता है। (2) सविचार समाधि-यह समाधि का वह रूप है, जिसमें सूक्ष्म विषय पर ध्यान लगाया जाता है। कभी-कभी तन्मात्रा भी ध्यान का विषय होती है। (3) सानन्द समाधि-इस समाधि में ध्यान का विषय इन्द्रियाँ रहती हैं। हमारी इन्द्रियाँ ग्यारह हैं-पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ + पाँच कर्मेन्द्रियाँ + मन । इन पर ध्यान लगाया जाता है। इन्द्रियों की अनुभूति आनन्ददायक होने के कारण इस समाधि को सानन्द समाधि कहा जाता है। ... (4) सस्मित समाधि-समाधि की इस अवस्था में ध्यान का विषय अहंकार है। अहंकार को 'अस्मिता' कहा जाता है। समाधि का दूसरा रूप असम्प्रज्ञात कहा जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि में ध्यान का विषय ही लुप्त हो जाता है। इस अवस्था में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेती है। इस अवस्था की प्राप्ति के साथ-ही-साथ सभी प्रकार की चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है। आत्मा का सम्पर्क विभिन्न विषयों से छूट जाता है। इस समाधि में ध्यान की चेतना का पूर्णतः अभाव रहता है। इसलिए इस समाधि को निर्बीज समाधि कहा जाता है। यही आत्मा के मोक्ष की अवस्था है। ईश्वर का स्वरूप योगदर्शन सांख्य के तत्त्वशास्त्र को अपनाकर उसमें ईश्वर का विचार जोड़ देता है। इसलिए योगदर्शन को सेश्वर-सांख्य कहा जाता है और सांख्य दर्शन को निरीश्वरसांख्य कहा जाता है। योगदर्शन ईश्वर की सत्ता को मानकर ईश्वरवादी दर्शन कहलाने का दावा करता है।
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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