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80 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
क्षिप्त चित्त की वह अवस्था है, जिसमें चित्त रजोगुण के प्रभाव में रहता है। इस अवस्था में चित्त अत्यधिक चंचल एवं सक्रिय रहता है। उसका ध्यान किसी एक वस्तु पर केन्द्रित नहीं हो पाता, अपितु वह एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर दौड़ता है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है। इसका कारण यह है कि इस अवस्था में इन्द्रियों और मन पर संयम का अभाव रहता है।
मूढ़ चित्त की अवस्था है, जिसमें वह तमोगुण के प्रभाव में रहता है। इस अवस्था में इन्द्रियों और मन पर संयम का अभाव रहता है।
मूढ़ चित्त की वह अवस्था है, जिसमें वह तमोगुण के प्रभाव में रहता है। इस अवस्था में निद्रा, आलस्य, आदि की प्रबलता रहती है। चित्त में निष्क्रियता का उदय होता है। इस अवस्था में भी चित्त योगाभ्यास के उपयुक्त नहीं है।
विक्षिप्तावस्था चित्त की तीसरी अवस्था है। इस अवस्था में चित्त का ध्यान कुछ समय के लिए वस्तु पर जाता है, परन्तु वह स्थिर नहीं हो पाता। इसका कारण यह है कि इस अवस्था में चित्त-स्थिरता का आंशिक-अभाव रहता है। इस अवस्था में चित्त-वृत्तियों का कुछ निरोध होता है, परन्तु फिर भी यह अवस्था योग में सहायक नहीं है। यह अवस्था क्षिप्त और मूढ़ की मध्य अवस्था है।
एकाग्रचित्त की वह अवस्था है, जो सत्त्व गुण के प्रभाव में रहता है, सत्त्व गुण की प्रबलता के कारण इस अवस्था में ज्ञान का प्रकाश रहता है। चित्त अपने विषय पर देर तक ध्यान लगाता रहता है। यद्यपि इस अवस्था में सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं होता है, फिर भी यह अवस्था योग अवस्था में पूर्णतः सहायक होती है।
निरुद्धावस्था चित्त का पाँचवाँ रूप है। इसमें सभी विषयों से चित्त हटाकर एक विषय पर ध्यानमग्न किया जाता है। इस अवस्था में चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध हो जाता है। चित्त में स्थिरता का प्रादुर्भाव पूर्णरूप से होता है। अगल-बगल के विषय चित्त को आकर्षित करने में असफल रहते हैं।
एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाओं को योगाभ्यास के योग्य माना जाता