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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
माना जा सकता है; क्योंकि जीव का ज्ञान सीमित है । इसलिए अनन्त बुद्धि से युक्त ईश्वर को प्रकृति का संचालक और नियामक मानना समीचीन प्रतीत होता है; परन्तु इस युक्ति के विरोध में आवाज उठायी जा सकती है।
ईश्वरवादियों ने ईश्वर को अकर्त्ता माना है। यदि यह ठीक है तो अकर्ता ईश्वर प्रकृति की क्रिया का संचालन कैसे कर सकता है? यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि ईश्वर प्रकृति संचालन के द्वारा सृष्टि रचना में प्रवृत्त होता है, तो इससे समस्या नहीं सुलझ पाती, बल्कि इसके विपरीत अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं । सृष्टि के संचालन में ईश्वर का क्या लक्ष्य हो सकता है ? बुद्धिमान पुरुष जब भी कोई कार्य करता है तो वह स्वार्थ अथवा कारुण्य से प्रेरित होता है। ईश्वर पूर्ण है, उसकी कोई भी इच्छा अपूर्ण नहीं है । अतः विश्व का निर्माण वह स्वार्थ की भावना से नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त दूसरे की पीड़ा से प्रभावित होकर भी वह सृष्टि नहीं कर सकता; क्योंकि सृष्टि के पूर्व शरीर, इन्द्रियों और वस्तुओं का जो दुख के कारण हैं, अभाव रहता है ।
अतः सृष्टि का कारण कारुण्य को ठहराना भूल है । फिर यदि ईश्वर करुणा के वशीभूत होकर सृष्टि करता तो संसार के समस्त जीवों को सुखी बनाता, परन्तु विश्व इसके विपरीत दुखों से परिपूर्ण है। विश्व का दुखमय होना यह प्रमाणित करता है कि विश्व इसके विपरीत दुखों से परिपूर्ण है। विश्व का दुखमय होना यह प्रमाणित करता है कि विश्व करुणामय ईश्वर की सृष्टि नहीं है। इसलिए जगत की रचना के लिए ईश्वर को मानना काल्पनिक है 142
सांख्य जीव की अमरता और स्थिरता में विश्वास करता है। यदि ईश्वर में विश्वास किया जाए तो जीव की स्वतन्त्रता तथा अमरता खण्डित हो जाती है। यदि जीव को ईश्वर का अंश माना जाए तो जीवों में ईश्वरीय गुण का समावेश होना चाहिए, परन्तु यह सत्य नहीं है। ईश्वर को सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान माना जाता है, परन्तु जीव का ज्ञान सीमित तथा उसकी शक्ति असीम है। इसलिए जीव को ईश्वर का अंश मानना भ्रामक है । यदि ईश्वर को जीव का सृष्टा माना जाए तो जीव नश्वर होंगे। इस प्रकार ईश्वर की सत्ता मानने से जीव के स्वरूप का खण्डन हो जाता है । अतः ईश्वर का अस्तित्व अनावश्यक है । 43