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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
1. दुःख की सत्ता - प्रायः सभी भारतीय दर्शन संसार को नश्वर, जड़ एवं दुःखमय मानते हैं । महात्मा बुद्ध ने तो अपने चार आर्यसत्यों में दुःख को प्रथम आर्यसत्य माना है । सांख्य की दृष्टि में संसार निरन्तर दुःखत्रय के आघात से पीड़ित रहता है - " दुःखत्रयाभिघातात् ।"" छहढालाकार पण्डित प्रवर दौलतरामजी भी लिखते हैं कि तीनों लोकों में अनन्त जीव मौजूद हैं और वे सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं
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जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दुःख तैं भयवन्त ।
स्वयं द्यानतराय ने भी एक पद में संसार को असार एवं मनुष्य भव की दुर्लभता को इस प्रकार बताया है
नहीं ऐसो जनम बारम्बार ।।
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कठिन - कठिन लह्यो मानुष-भव, विषय तजि मतिहार ।। नहिं । । पाय चिन्तामणी रतन शठ, छिपत उदधि मँझार ।
अंध हाथ बटेर आई, तजत ताहि गँवार ।। नहिं. । । कबहुँ नरक तिरयंच कबहुँ, कबहुँ सुरग विहार । जगत माहिं चिरकाल भ्रमियो, दुर्लभ नर अवतार ।। नहिं । । पाय अमृत पांव धोवे, कहत सुगुरु पुकार ।
तजो विषय कषाय द्यानत, ज्यों लहो भवपार ।। नहिं । ।
इस प्रकार अन्य दर्शन भी जन्म, मृत्यु के रूप में अनेकविध दुःख मानते हैं- पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् और इनसे मुक्त हो जाने को मोक्ष मानते हैं।
2. दुःख का कारण अज्ञान - भगवान बुद्ध ने दुःख के कारण को दूसरा आर्यसत्य माना है । जब दुःख है तो उसका कारण भी निश्चित रूप से है। अन्य दर्शन भी इस सम्बन्ध में बौद्धदर्शन का ही अनुसरण करते प्रतीत होते हैं। इन सभी दर्शनों ने दुःख के कारण के रूप में अविद्या या अज्ञान को माना है ।
3. मुक्ति या मोक्षः - संसार के विविध दुःखों से मुक्त हो जाने को ही मुक्ति या मौक्ष के नाम से अभिहित किया गया है । यह सभी दर्शनों का काम्य है और इसीलिए इसको अन्तिम पुरुषार्थ माना गया है, किन्तु इसके स्वरूप के सम्बन्ध में दर्शनों में ऐकमत्य नहीं है। न्यायवैशेषिक आत्मा की सदरूपावस्थिति को सांख्ययोग उसकी चित्स्वरूपावस्थिति को और वेदान्त