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उपसंहार मध्यकालीन हिन्दी भक्तिकाव्य अपनी विपुलता, काव्य-गरिमा, भक्ति-वैभव एवं सांस्कृतिक देन के कारण भारतीय इतिहास में विशिष्टता पाए हुए है। नए अन्वेषणों के पश्चात् यह स्वीकार किया जाने लगा है कि इसकी मूल धाराएँ सन्त और वैष्णव काव्य धाराएँ ही नहीं, अपितु तीसरी जैन भक्ति काव्यधारा भी महत्त्वपूर्ण है। आदिकाल से ही जैन साहित्य ने लोक-कल्याण और आत्म-कल्याण की शिक्षा दी है। जैन साहित्यकारों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं अन्य प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य का सृजन किया है।
___पुष्पदन्त, भूतबलि, कुन्दकुन्द, गुणभद्र, उमास्वामी, स्वयंभू, समन्तभद्र जैसे समर्थ श्रमण सन्तों एवं बनारसीदास, भगवतीदास, भूधरदास, दौलतराम, द्यानतराय, भागचन्द, बुधजन जैसे उत्कृष्ट विद्वानों का नाम उनकी अमर काव्य-रचनाओं के कारण युगों-युगों तक लिया जाएगा।
हर कालखण्ड में जैन साहित्यकारों ने अपना वर्चस्व बनाए रखा है, इसलिए नहीं कि वे बुद्धिजीवी थे, वरन् मुख्यतः इसलिए कि जैनदर्शन के मूल सिद्धान्तों में जीव मात्र के आत्मविश्वास एवं आत्मोन्नयन की पूर्ण-सामर्थ्य विद्यमान है; क्योंकि यह जीवन की अनुभूतियों एवं सुख-दुःख की समस्याओं की त्रैकालिक आधारभूमि पर खड़ा है।
जैन साहित्यकारों की श्रृंखला में कवि द्यानतराय ने काव्य-सृजन • कर हिन्दी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी
अद्यतन पूजा-साहित्य, भाषा-साहित्य, संग्रह-साहित्य, विलास-शतक, एवं बावनी-साहित्य, सुबोध पंचासिका एवं स्तोत्र-साहित्य पर संभवतः चार दर्जन से अधिक स्तरीय कृतियाँ हिन्दी में उपलब्ध हैं। यह सही है कि वे 'उपेक्षित, अचर्चित भी नहीं रहे। उन्होंने अपने महत्त्वपूर्ण साहित्य-सृजन से, अपने रसमय भक्ति गीतों-भजनों से अपने समय और समकालीन साहित्य को प्रभावित किया है। कविवर ने विपुल साहित्य का सृजन कर अवश्य ही प्राप्तव्य की प्राप्ति की है। कविवर द्यानतराय के काव्य सृजन का एकमात्र उद्देश्य अध्यात्म का निरूपण कर पारलौकिक सुख प्राप्त करना रहा है।
कविवर द्यानतराय का काव्य-सृजन अपने समय-सन्दर्भो और स्थितियों में एक कारगर कदम है। उनके काव्य में मात्र भक्ति का पुट ही