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________________ 176 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना तथा रत्नत्रय को ध्यानेवाला चार गति के दुःख नहीं सहता है और वह जन्म, जरा एवं मृत्यु के दोष को मिटा देता है। (5) मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का वर्णन - यह जीव अनादिकाल से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के कारण दुःखी है। इन तीनों के कारण चार गति, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए जन्म-मरण का दुःख भोग रहा है। मिथ्यादर्शनादि विकारी भावों के कारण विविध संयोगों के बीच में रहते हुए भी इसे आज तक सुख प्राप्त नहीं हुआ। बिना सीखे, बिना सिखाए ही ये मिथ्यादर्शनादि अनादिकाल से चले आ रहे होने के कारण अगृहीत मिथ्यात्व कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त इन्हीं को पुष्ट करनेवाले अनेकानेक बाह्य कारणों में अपनी अज्ञानता से स्वयं उलझकर या अन्य के माध्यम से उलझकर यह जीव अनन्त दुःख भोग रहा है। इन्हें नया ग्रहण करने के कारण से गृहीत मिथ्यात्व कहलाते हैं। द्यानतराय ने भी अपने पदों में गृहीत और अगृहीत मिथ्यात्व का वर्णन जगह-जगह किया है। (6) नवपदार्थ का वर्णन-जैनधर्म का प्रधान लक्ष्य है आत्मा का विकास कर मुक्ति प्राप्त करना, परन्तु उसके लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि आत्मा क्या है? उसका गुण क्या है? किस प्रकार आत्मा संसारबद्ध होकर संसार-चक्र में आवर्तित होते हुए दुःख (कष्ट) को सहन करता है और किस प्रकार इस संसार-भ्रमण से मुक्त हुआ जा सकता है? और यह भी सत्य है कि इन सब बातों को जाने बिना आत्मविकास सम्भव नहीं होता। अतः इस ज्ञान के साधनरूप में जैनदर्शन ने नवतत्त्व (नवपदार्थ) स्वीकार किये हैं। वे हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव और अजीव इन दो तत्त्वों में संसार के समस्त पदार्थ समाविष्ट हो जाते हैं। अन्य सात तत्त्व यह विवृत करते हैं कि जीव या चेतन आत्मा किस प्रकार अजीव या जड़ द्रव्य से बद्ध हो जाती है एवं किस प्रकार उनसे मुक्त हो सकती है। इन नव तत्त्वों में सात तत्त्वों का वर्णन पूर्व में कर आये हैं। अतः यहाँ पुण्य एवं पाप का अध्ययन किया जा रहा है। द्यांनतराय ने पुण्य एवं . पाप दोनों को निकृष्ट बताया है। वे लिखते हैं कि पुण्य हो या पाप दोनों ही जीव को कर्मबन्ध के कारण हैं, अतः आत्मकल्याण में बाधक हैं। वे लिखते हैं कि -
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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