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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 175 सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र परस्पर सापेक्ष है अर्थात् दर्शन शुद्ध न होने पर ज्ञान शुद्ध नहीं हो सकता। बिना ज्ञान शुद्धि के चारित्र शुद्ध नहीं होता। सम्यग्दर्शन और ज्ञान उत्पन्न होने पर भी सम्यक्चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। अतः इन तीनों का परिपूर्ण विकास होने पर ही मोक्ष संभव है। विषय-कपायों के कारण चारित्र प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। इसलिए जैन शास्त्र में आचरण की विशुद्धता पर विशेष बल दिया गया है। सम्यक्चारित्र पूजन में सम्यक्चारित्र को इस प्रकार व्यक्त किया है - आप-आप थिर नियत नय, तप संयम व्योहार। स्व पर-दया दोनों लिये, तेरह विध दुःखहार ।। सम्यक्चारित वचन सँभालौ, पाँच पाप तजि के व्रत पालौ। पंच समिति त्रय गुपति गहीजै, नरभव सफल करहु तन छीजै।। छीजै सदा तन को जतन यह, एक संजम पालिए। बहु रुल्यो नरक-निगोद माहीं, विष-कषायनि टालिए।। शुभ करम जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है। द्यानत धरम की नाव बैठो, शिव पुरी कुशलात है ।। 102 __ इस प्रकार द्यानतराय ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मुक्ति का साक्षात् कारण बताया है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय को प्रगटाना आवश्यक है। यदि इनमें से एक भी नहीं है तो मुक्ति सम्भव नहीं है। रत्नत्रय के महत्त्व को बताते हुए वे लिखते हैं कि - सम्यक् दरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुक्ति न होय । अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलै दव लोय ।। जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करमबन्ध कट जावै । तासों शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावै ।। ताको चहुँगति के दुःख नाहों, सो न परे भवसागर माहीं। " जनम-जरा-मृत दोष मिटावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै ।।103 ___अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती है, उसी प्रकार जैसे अन्धा व्यक्ति, लँगड़ा व्यक्ति एवं आलसी व्यक्ति अलग-अलग रहने पर जंगल में जली आग में जलकर मर जाते हैं, किन्तु यदि तीनों मिलकर सूझ-बूझ से काम लें तो तीनों बच सकते हैं। उसी प्रकार जो मन को स्थिर कर ध्यान करता है, उसके कर्मबन्धन कट जाते हैं
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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