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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना (ख) साधनागत निरूपणा 165 इस अध्याय के अन्तर्गत द्यानतरायजी के साधनागत निरूपणा का अध्ययन किया जाएगा, जिसमें आत्मानुभवरूप साधना के लिए आवश्यक सात तत्त्वों का ज्ञान, छह द्रव्यों का वर्णन, रत्नत्रय, मिथ्याभाव, नवपदार्थ का वर्णन कर अन्त में आत्मानुभव की अवस्था का अध्ययन किया जाएगा। (1) सात तत्त्वों का निरूपण - तत्त्व का अर्थ है - सारभूत पदार्थ । वस्तु भाव या स्वभाव को तत्त्व कहते हैं । तत्त्व शब्द तत् और त्व के योग से बना है । 'तत्' का अर्थ है 'वह' और 'त्व' का अर्थ भाव या पना । अर्थात् वस्तु का भाव या पना ही तत्त्व है। जैसे अग्नि का अग्नित्व, स्वर्ण का स्वर्णत्व, मनुष्य का मनुष्यत्व आदि । प्रत्येक दर्शन का ध्येय दुःख से निवृत्ति है। दुःख निवृत्ति के लिए दुःख और दुःख के कारण तथा दुःख - निवृत्ति और उसके साधन का सम्यक् परिज्ञान आवश्यक है। जैन दर्शन में सात तत्त्वों के माध्यम से इन्हीं बातों का विचार किया गया है। प्रत्येक सत्यान्वेषी साधक को इनका सम्यक् परिज्ञान `आवश्यक है। तत्त्व सात हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष | सातों तत्त्वों के लक्षण जैन तत्त्वविद्या में इसप्रकार दिये हैं(1) जीव - जिसमें चेतना हो, सुख-दुःख आदि के अनुभवन की क्षमता हो । (2) अजीव - चेतना रहित पदार्थ । (3) आस्रव - कर्म आगमन का द्वार । (4) बंध - जीव और कर्म का दूध में जल की तरह एकमेक हो जाना । (5) संवर - आस्रव का निरोध । (6) निर्जरा - कर्मों का आंशिकरूप से झड़ना । (7) मोक्ष-कर्मों का आत्यन्तिक क्षय । पूर्णरूप से झड़ना । इन सात तत्त्वों का ज्ञान दुःख - निवृत्ति के लिए अनिवार्य है। जीव का मूल लक्ष्य दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर शाश्वत सुख - मोक्ष की उपलब्धि है। मोक्षोपलब्धि के लिए जिन तथ्यों की जानकारी अपेक्षित है, वे तथ्य ही तत्त्व कहलाते हैं । जिस प्रकार स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए इन सात तत्त्वों पर विचार करना अनिवार्य है, उसी प्रकार मोक्षोपलब्धि के लिए संसार और संसार के कारण का ज्ञान अनिवार्य है ।
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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