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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 157 क्रियाकाण्ड एवं आडम्बर का कहीं भी स्थान नहीं है। अतः उन्होंने अपने काव्य में बाह्य आडम्बर का विरोध किया। जैसा कि उन्होंने लिखा है कि -
तू तो समझ समझ रे भाई।। टेक।। निशिदिन विषयभोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई।। कर मनका ले आसन मार्यो, बाहिज लोक रिझाई। कहा भयो बक ध्यान धरे तै, जो मन थिर न रहाई।। मास मास उपवास किये तै, काया बहुत सुखाई। क्रोध मान छल लोभ न जीत्या, कारज कौन सराई।। मन वच काय जोग थिर करके, त्यागो विषय कषाई। ‘द्यानत' सुरग मोक्ष सुखदाई, सतगुरु सीख बताई ।।45
उपर्युक्त पद में द्यानतरायजी ने आडम्बरी जीव को फटकार लगाते हुए कहा है कि हे जीव! तू प्रतिदिन विषयभोग में मस्त रहकर धर्म के वचन । को नहीं सुनता है, हाथ में भाला का मनका फेरकर लोगों को रिझाया है। बगुले की तरह ध्यान लगाने से क्या फायदा, यदि मन को स्थिर नहीं किया तो और क्या फायदा महिनों उपवास कर शरीर को सुखाने से, यदि क्रोध, मान, माया, लोभ को नहीं जीता तो सब व्यर्थ है। इसलिए मन-वचन-काय को स्थिर कर विषयों को त्यागकर मोक्षसुख को प्राप्त करो।
. इसी तरह आन्तरिक शुद्धि न कर बाह्य क्रिया-कलापों में मस्त रहनेवाले जीवों को इन शब्दों में उपदेश दिया है।
जिया तैं आतमहित नहिं कीना।। रामा रामा धन धन कीना, नरभव फल नहिं लीना। जप तप करके लोक रिझाये, प्रभुता के रस भीना।।
अन्तर्गत परनाम न सोधे, एकौ गरज सरौ ना। बैठि सभा में बहु उपदेशे, आप भये परवीना।। ममता डोरी तोरी नाही, उत्तम तै भये हीना। द्यानत मन वच काय लायके, निज अनुभव चितदीना। अनुभव धारा ध्यान विचारा, मंदर कलश नवीना।।
उपर्युक्त पद में द्यानतरायजी कहते हैं कि हे जीव! तूने आत्मकल्याण तो किया नहीं और राम-राम, धन-धन करके मनुष्यभव को व्यर्थ गँवाया, जप तप करके लोगों को रिझाकर, स्वामित्व में रस लिया। अन्तरंग परिणाम