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________________ 156. कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना नरक पशूगति आग माहितै, सुरग मुकत सुख थापै सोई। . तीन लोक मंदिर में जानो, दीपक सम परकाशक लोई।। दीप तलैं अँधियार भर्यो है अंतर बहिर विमल है जोई। तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई।। द्यानत निशिदिन निरमल मन में राखो गुरुपद पंकज दोई।।4112 चूँकि द्यानतरायजी शैली से जुड़े हुए थे, जहाँ उन्हें देव-गुरु-धरम की पहचान हुई और शैली के संगत से ही धर्म में रुचि लगी। इसलिए ही उन्होंने लिखा है - सैली जयवंती यह हूजो।। टेक।। शिवमारग को राह बतावै और न कोई दूजो।। सैली।। देव धरम गुरु सांचै जानै झूठो मारग त्यागो। • सैली के परसाद हमारो, जिन चरनन चित्त लाग्यो।। . दुख चिरकाल सह्यौ अति भारी, सो अब सहज बिलायो। दुरित तरन दुख हेरन मशेहर, धरम पदारथ पायो।। "द्यानत' कहै सकल सन्तन को, नित प्रति प्रमुगुन गायो। .. जैन धरम परधान ध्यान सौं, सबही शिवसुख पावौ।। सैली।। शैली की महिमा गाते हुए वे लिखते हैं कि - . . ज्ञानवान · जैनी सबै, बसै आगरे माहिं। .. ‘साधर्मी संगति मिले, कोई मूरख नाहिं।। भवसागर को पार करने में सत्संगति की आवश्यकता पर वे लिखते हैं कि - वह गुरु हों मम संयमी, देव जैन हो सार। साधर्मी संगति मिलो, जब लो हो भव पार।। ....... .. इस प्रकार द्यानतराय ने धर्म की प्राप्ति में साधक गुरु, मित्र, शास्त्र; देव आदि की संगति को ही सत्संगति कहा है, जो विषय-कषाय में लगाये, वह संगति के योग्य नहीं है। (7) बाह्याडम्बर विरोध- द्यानतरायजी आत्मोन्मुखी कवि थे, जिसके कारण उन्हें आत्मा की चर्चा ही रुचती थी। उनके अनुसार आत्मा को प्राप्त करने का एकमात्र साधन आत्मा की आन्तरिक प्रवृत्ति ही काम आती है। वहाँ
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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