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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना सूचक है। परमागम का अनुभव करके अंतरंग मिथ्यात्व कषायादि मल का धोना, वह शौच धर्म है । -
शुचिता अर्थात् पवित्रता की बात करते हुए कवि द्यानतराय लिखते हैं - धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देह सों । शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसार में ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना । आशा - पास महा दुःखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी । । प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतें । नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि - दोष स्वभावतैं ।। ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै । बहु देह मैली सुगुन थैली, शौच-गुन साधु लहै । । 27
(5) उत्तम सत्य धर्म - उत्तम सत्य अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित वीतराग भाव है। सत्य वचन की विशेषता बताते हुए कविवर द्यानतराय लिखते हैं कि
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कठिन वचन मति बोल, पर- निन्दा अरु झूठ तज । साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ।। उत्तम सत्य बरत पालीजै, पर विश्वासघात नहिं कीजै । साँचे-झूठे मानुष देखों, आपन पूत स्वपास न पेखो । पंखो तिहायत पुरुष साँचे को, दरब सब दीजिये । मुनिराज - श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये ।। ऊँचे सिंहासन बैठि वसु नृप, धरम का भूपति भया । वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरंग में नारद गया । | 28
( 6 ) उत्तम संयम धर्म-संयमनं संयमः' अथवा व्रत समिति–कषाय-दण्डेन्द्रियाणां धारणानुपालननिग्रहत्यागजयाः संयमः।
पाँच समितियों का पालन, क्रोध - मन- माया - लोभ इन चार कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति - ये तीन दण्ड हैं। इन दण्डों का त्याग करना तथा विषयों में दौड़ने वाली पाँच इन्द्रियों को वश में करना - जीतना वह संयम है ।
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कविवर द्यानतराय ने संयम का वर्णन इस प्रकार किया है - काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो । संजम - रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ।।