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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
गुणकार विषै स्वर्ग-मोक्ष-सुख की एक जाति जाने है। तहाँ स्वर्ग विषै तो विषयादि सामग्रीजनित सुख हो, ताकि जाति याकौं भासे है, अर मोक्ष विषै-विषयादि सामग्री है नाहीं, सो वहाँ का सुख की जाति याकौं भासै तौ नाहीं, परन्तु स्वर्ग तैं भी मोक्ष कौं उत्तम, महापुरुष कहै हैं, तातैं यहु भी उत्तम ही मानै है। जैसे कोऊ गान का स्वरूप न पहिचानै, परन्तु सर्व सभा कै सराहैं, तातैं आप भी सराह है । तैसे यहु मोक्ष कौं उत्तम माने है | कविवर बनारसीदासजी लिखते हैं कि
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थिति पूरन करि जो करम, खिरै बंधपद भानि । हस अस उज्ज्वल को, मोक्ष तत्त्व सो जानि ।। मोक्षसुख को बताते हुए कवि द्यानतराय लिखते हैं कि करै करम की निरजरा, भव पींजरा विनाशि | अजर अमर पद को लहै, द्यानत सुख की राशि ।।
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अर्थात् जो व्यक्ति कर्मों की निर्जरा कर भवरूपी पिंजड़े का नाश करता है, वह अजर-अमर पद को अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त करता है ।
द्यानतराय भी अन्य भारतीय दर्शनों की तरह मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। मोक्ष बन्धन का प्रतिलोम है; जीव और पुद्गल का संयोग बन्ध है; इसलिए इसके विपरीत जीव का पुद्गल से वियोग ही मोक्ष है । द्यानतराय के अनुसार मोक्षावस्था में जीव का पुद्गल से पृथक्करण हो जाता है। वे कहते हैं कि बन्धन का कारण पुद्गल के कणों का जीव की ओर प्रवाहित होना है। इसलिए मोक्ष की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती, जब तक नये पुद्गल के कणों को आत्मा की ओर प्रवाहित होने से रोका न जाए; परन्तु सिर्फ नये पुद्गल के कणों को आत्मा की ओर प्रवाहित होने से रोकना ही मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं है । जीव में कुछ पुद्गल के कण अपना घर बना चुके हैं। अतः ऐसे पुद्गल के कणों का उन्मूलन भी परमावश्यक है । नये पुद्गल के कणों को जीव की ओर प्रवाहित होने से रोकना संवर कहा जाता है। पुराने पुद्गल के कणों का क्षय 'निर्जरा' कहा जाता है। इस प्रकार आगामी पुद्गल के कणों को रोककर तथा सचित्त पुद्गल के कणों को नष्ट कर जीव कर्म - पुद्गल से छुटकारा पा जाता है। कर्म पुद्गल से मुक्त हो जाने पर जीव वस्तुतः मुक्त हो जाता है ।