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________________ 112 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना और उपभोग में रुकावट करता है। इन आठों कर्मों का जिन्होंने हरण किया है, वे ही हमको तारने में समर्थ हैं। उपर्युक्त 148 कर्म प्रकृतियों का वर्णन कवि द्यानतराय ने इस प्रकार किया है - ग्यानावरनी पाँच, दर्सनावरनी नौ विध। दोय वेदनी जान, मोहिनी आठ बीस निध।। आव चार परकार, नाम की प्रकृति तिरानौ । तथा एक सौ तीन, गोत दो भेद प्रमानौ ।। कहि अन्तराय की पाँच सब, सौ अड़तालिस जानिए। इमि आठ करम अड़तालिसौं, भिन्न रूप निज मानिए।। 88 कर्मों की 148 प्रकृतियाँ कौन-कौन से गुणस्थान में क्षय (नष्ट) होती हैं, उसके बारे में कवि द्यानतराय लिखते हैं - सात प्रकृति कौ घात, ठीक सातम गुणथानै। ... तीनि आव नहिं होय, नवम छत्तीसौं भानै ।। दसमैं लोभ विदार, बारहैं सोल मिटावै। चौदहमैं के अन्त, बहत्तर तेर खिपावै ।। इमि तोर करम अड़ताल सौ, मुकति माहिं सुख करत हैं। प्रभु हमहिं बुलावौ आप ढिंग, हमइ पाँयनि परत हैं। अर्थ- यह जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व, मिश्रमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति - इन सात प्रकृतियों का क्षय चौथे से सातवें अप्रगत गुणस्थान तक करता है अर्थात् क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के इन सात प्रकृतियों की सत्ता सातवें गुणस्थान से आगे नहीं रहती। अप्रमत्त गुणस्थान के दो भेद होते हैं - एक स्वस्थान अप्रमत्त और दूसरा सातिशय अप्रमत्त । सातिशय अप्रमत्त वह कहलाता है, जो श्रेणी चढ़ने के सन्मुख होता है। इस मोक्षगामी जीव के नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु की सत्ता नहीं होती है। नववें गुणस्थान में 36 प्रकृतियों का क्षय करता है, दसवें में सूक्ष्मलोभ को नष्ट करता है, बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणी की 5, दर्शनावरणी की 6 और अन्तराय की 5-इस तरह सब मिलाकर 16 प्रकृतियों का क्षय करता है। चौदहवें गुणस्थान के अन्त में जब दो समय रह जाते हैं तब पहले समय में 72 और दूसरे समय में 13 प्रकृतियों को खिपाता है। इस
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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