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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 111
सहत लपेटी असिधारा सुखदुखकार। मदिरा ज्यौ जीवन कौ मोहिनी बिधारै है। काठमै दियौ है पाँव करै घिति कौ सुभाव चित्रकार नाना नाम चीतकै समारै है। चक्री ऊँच नीच धरै, भूप दीयौ मनै करै
एई आठ कर्म हरै सोई हमैं तारै है।।
अर्थ-देव की मूर्ति पर यदि कपड़ा पड़ा हुआ हो तो जिस तरह उसका ज्ञान नहीं होता है-उसका रूप नहीं दिखता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्म का परदा पड़ने से आत्मा का ज्ञान गुण ढंक जाता है। जिस तरह. दरबान अर्थात् पहरेदार राजा का दर्शन नहीं करने देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म आत्मा के दर्शनगण का दर्शन नहीं होने देता है। जिस तरह शहद में लिपटी हुई तलवार की धार चाटने से मीठी लगती है और साथ ही जीभ को काट डालती है, उसी प्रकार से वेदनीय कर्म आत्मा को सुखी, दुःखी करता है। यह कर्म आत्मा के अव्याबाध गुण का घात करता है।
जिस तरह शराब जीवों पर मोहनीय का अर्थात् बेहोशी का (बाबलेपन का) विस्तार करती है, उसी प्रकार से मोहनीयकर्म आत्मा को मोहित कर डालता है। इस कर्म के संयोग से जीव पर पदार्थों में इष्ट तथा अनिष्ट की कल्पना करता है और तद्रूप आचरण करता है अर्थात् इससे जीव को सम्यक्त्व और चारित्रगुण का घात होता है।
जिस तरह चोर का पैर काठ में देने से वह काठ उसकी स्थिति करता है-उसको कहीं हिलने-चलने नहीं देता, उसी प्रकार से आयुकर्म जीव की भव-भव में स्थिति करता है।
___ जब तक एक शरीर की आयु पूरी नहीं हो जाती है, तब तक जीव दूसरे शरीर में नहीं जा सकता है। इससे अवगाह गुण का घात होता है। जिस प्रकार चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाकर उनके जुदा-जुदा नाम रखता है, उसी प्रकार से नामकर्म एकेन्द्रियादि नामवाले शरीर बनाता है। यह कर्म आत्मा के सूक्ष्मत्व गुण का घात करता है। जिस प्रकार कुम्हार ऊँचे-नीचे अर्थात् छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, उसी प्रकार से गोत्र कर्म ऊँचे-नीचे कुल में जीव को उत्पन्न करता है और जिस प्रकार भण्डारी राजा को दान करने से रोकता है, उसी प्रकार अन्तरायकर्म दान, लाभ, भोग