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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 91
मीमांसा इसका कारण बाधाओं का उपस्थित होना बतलाती है, जिसके कारण शक्ति का हास हो जाता है। सूर्य में पृथ्वी को आलोकित करने की शक्ति है, परन्तु यदि मेघ के द्वारा सूर्य को ढंक लिया जाए तो सूर्य पृथ्वी को आलोकित नहीं कर सकता है। अपूर्व सिद्धान्त सार्वभौम नियम है, जो मानता है कि बाधाओं के हट जाने से प्रत्येक वस्तु में निहित शक्ति कुछ-न-कुछ फल अवश्य देगी। 'अपूर्व' को संचालित करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। यह स्वसंचालित है। 'अपूर्व की सत्ता का ज्ञान वेद से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अर्थापत्ति भी 'अपूर्व' का ज्ञान देता है। शंकर ने 'अपूर्व' की आलोचना यह कहकर की है कि 'अपूर्व अचेतन होने के कारण किसी आध्यात्मिक सत्ता के अभाव में संचालित नहीं हो सकते, कर्म के फलों की व्यवस्था अपूर्व से करना असंगत है।
मोक्ष विचार प्राचीन मीमांसकों ने स्वर्ग को जीवन का चरम लक्ष्य माना था, परन्तु मीमांसा दर्शन के विकास के साथ-ही-साथ बाद के समर्थकों ने मोक्ष के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। उन्होंने मोक्ष के स्वरूप और साधनों का विचार किया है। ऐसे मीमांसकों में प्रभाकर और कुमारिल का नाम लिया जा सकता है।
मीमांसा के मतानुसार आत्मा स्वभावतः अचेतन है। आत्मा में चेतना का संचार तभी होता है, जब आत्मा का संयोग शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से होता है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा का सम्पर्क शरीर, इन्द्रिय, मन से टूट जाता है। इसका फल यह होता है कि मोक्ष की अवस्था में आत्मा के धर्म और अधर्म सर्वदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप पुनर्जन्म का अन्त हो जाता है, क्योंकि धर्म और अधर्म के कारण ही आत्मा को विभिन्न शरीरों में जन्म लेना पड़ता है। जब धर्म और अधर्म का क्षय हो जाता है तो आत्मा का सम्पर्क शरीर से हमेशा के लिए छूट जाता है।
__ मोक्ष दुख के अभाव की अवस्था है। मोक्षावस्था में सांसारिक दुःखों का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है। मोक्ष को मीमांसकों ने आनन्द की अवस्था नहीं माना है। कुमारिल्ल का कथन है कि यदि मोक्ष को आनन्दरूप माना जाए तो वह स्वर्ग के तुल्य होगा तथा नश्वर होगा। मोक्ष नित्य है, क्योंकि वह अभावरूप है। अतः मोक्ष को आनन्ददायक अवस्था कहना