________________
90
कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
बावजूद मीमांसा और कान्ट के कर्म - सिद्धान्तों में कुछ अन्तर है। मीमांसा और कान्ट के कर्म सिद्धान्त में पहला अन्तर यह है कि मीमांसा फल के वितरण के लिए 'अपूर्व सिद्धान्त को अंगीकार करती है, जबकि कान्ट फल के वितरण के लिए ईश्वर की मीमांसा करती है। मीमांसा और कान्ट के कर्म सिद्धान्त में दूसरा अन्तर यह है कि मीमांसा कर्त्तव्यता का मूल स्रोत एकमात्र वेद - वाक्य को मानती है, जबकि कान्ट कर्त्तव्यता का मूल स्रोत आत्मा के उच्चतररूप को मानता है ।
मीमांसा का कर्म सिद्धान्त गीता के निष्काम कर्म से भी मिलता-जुलता है । एक व्यक्ति को कर्म के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए, परन्तु उसे कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । गीता का कथन है कि कर्म करना ही तुम्हारा अधिकार है, फल की चिन्ता मत करो 17
मीमांसा के अनुसार विश्व की सृष्टि ऐसी है कि कर्म करनेवाला उसके फल से वंचित नहीं हो सकता । वैदिक कर्म को करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । प्रत्येक कर्म का अपना फल होता है । जब एक देवता को बलि दी जाती है तो उसके फलस्वरूप विशेष पुण्य संचय होता है । वे सभी फल मुख्य लक्ष्य स्वर्ग अथवा मोक्ष को अपनाने में सहायक हैं। अब, यह प्रश्न उठता है कि यह कैसे सम्भव है कि अभी के किये गये कर्म का फल बाद में स्वर्ग में मिलेगा? कर्म का फल कर्म के पालन के बहुत बाद कैसे मिल सकता है। मीमांसा इस समस्या का समाधान करने के लिए अपूर्व सिद्धान्त का सहारा लेती है, अपूर्व का शाब्दिक अर्थ है, वह जो पहले नहीं था । मीमांसा मानती है कि इस लोक में किये गये कर्म एक अदृश्य शक्ति उत्पन्न करते हैं। जिसे अपूर्व कहा जाता है । मृत्यु के बाद आत्मा परलोक में जाती है। जब उसे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। 'अपूर्व' के आधार पर ही आत्मा को सुख - दुख भोगने पड़ते हैं।
कुमारिल के अनुसार 'अपूर्व' अदृश्य शक्ति है, जो आत्मा के अन्दर उदित होती है। कर्म की दृष्टि से 'अपूर्व कर्म - सिद्धान्त कहा जाता है अपूर्व सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कारण में शक्ति निहित है, जिससे फल निकलता है। एक बीज में शक्ति अन्तर्भूत है, जिसके कारण ही वृक्ष का उदय होता है। कुछ लोग यहाँ पर आपत्ति कर सकते हैं कि यदि बीज में वृक्ष उत्पन्न करने की शक्ति निहित है तो क्यों नहीं सर्वदा बीज से वृक्ष का आविर्भाव होता है ।