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।। लघु शान्ति विधान ।।
'मेरु सुदर्शन - विजय- अचल - मन्दर - विद्युन्माली अभिराम । सबमें चार-चार वन सुन्दर, जिनमें चार-चार जिनधाम ।। सब मिल अस्सी जिनगृह इनमें, इकशत वसु प्रतिमा शोभित । इन्द्रादिक सुर-नर-मुनि जाते, दर्शन कर होते मोहित ।। सभी अकृत्रिम चैत्यालय हैं, इनमें इक शत वसु जिनबिम्ब । मैं भी दर्शन इनके करके, इनमें देखूं निज प्रतिबिम्ब ।। इन सबको मैं अर्घ्यं चढ़ाऊँ, विनयभाव से भक्तिसहित । परम शान्ति सुख पाऊँ स्वामी, हो जाऊँ परभाव रहित ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरूसम्बन्धि - अशीतिजिनालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । पंचमेरूसम्बन्धी बीस गजदन्त जिनालयों को अर्घ्य पंचमेरु सम्बन्धी हैं, विदिशाओं में गजदन्त सुबीस । एक-एक में एक जिनालय, सब मिल बीस जिनगृह ईश ।। सभी अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं, तथा अकृत्रिम जिनप्रतिमा । जो भी इनको वन्दन करते, पाते हैं निजपद महिमा || मैं भी भावसहित गजदन्तों के, जिनमन्दिर को करूँ नमन । परम शान्ति का सिन्धु प्राप्त कर, निजस्वरूप में रहूँ मगन ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरूसम्बन्धिविंशति गजदन्तजिनालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । पंचमेरूसम्बन्धी अस्सी वक्षार जिनालयों को अर्ध्य एक मेरु सम्बन्धी हैं, वक्षार सुपर्वत सोलह महान । पंचमेरु सम्बन्धी हैं, वक्षार अस्सी अति महिमावान ।। एक - एक पर एक जिनालय, स्वर्णमयी बहु सुन्दर हैं । सब मिल अस्सी जिनगृह इनमें, जिनप्रतिमाएँ अति मनहर हैं ।। इन सबको मैं अर्घ्यं चढ़ाऊँ, विनय सहित करके वन्दन । परम शान्ति सुख पाऊँ स्वामी, पाऊँ शाश्वत मुक्ति सदन ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरूसम्बन्धिअशीतिवक्षारस्थ जिनालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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