________________
बांसवाँ बोल
८१
देखो ! यहाँ सूक्ष्म बात ली है। अठारहवें बोल में ऐसा कहा था - त्रिकाली द्रव्य सामान्य, वह ज्ञानरूप गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है । आत्मा में ज्ञानगुण का भेद नहीं है अर्थात् आत्मा सामान्य अभेदरूप है, ऐसा कहा था । उन्नीसवें बोल में ऐसा कहा था - त्रिकाली द्रव्यसामान्य में ज्ञान की पर्याय नहीं है अर्थात् सामान्य में विशेष नहीं है, सामान्य में विशेष का अभाव है; ऐसा कहा था। यहाँ बीसवें बोल में कहते हैं कि एकसमय की पर्याय में त्रिकाली द्रव्य का अभाव है। ज्ञानगुण की पर्याय त्रिकाली ज्ञानगुण के आधार से नहीं है, विशेष सामान्य के आधार से नहीं है। एकसमय की सम्यग्ज्ञान की पर्याय अथवा केवलज्ञान की पर्याय निरपेक्ष है। त्रिकाली गुण के आधार से वह प्रगट नहीं होती है: इसप्रकार निरपेक्षता बतलाई है। इसप्रकार आत्मा त्रिकाली ज्ञान से नहीं स्पर्शित ऐसा शुद्धपर्याय है; ऐसा यहाँ बतलाया है।
निर्विकारी ज्ञान की पर्याय प्रगट करनी है, उसका यहाँ प्रकरण नहीं है। शुद्धपर्याय ‘है' उसका प्रकरण है। शुद्धपर्याय है, यह विशेष है। विशेष ' है ' इसप्रकार कहते ही यह त्रिकाली ज्ञानसामान्य के आधार से नहीं है; इसप्रकार निर्णय होता है। पदार्थ 'है' इसप्रकार कहते ही, यह पर से नहीं है, इसप्रकार निर्णय होता है। पर्याय 'है' इसप्रकार कहो, तत्पश्चात् पर से 'है' ऐसा कहो तो उसका 'है' पना सिद्ध नहीं होता है। विशेष की अपेक्षा से सामान्य पर है; क्योंकि विशेष वह सामान्य नहीं है।
सामान्य के आधार से विशेष मानने में आये तो विशेष निरपेक्ष सिद्ध नहीं होता है । विशेष को पराधीन माने तो पराधीनदशा होती है, वह पर्यायबुद्धि है।
I
आत्मा अनादि से द्रव्य से शुद्ध है और उसके आश्रय करने से निर्मलपर्याय प्रगट होती है, अत: पर्याय में द्रव्य का अभाव वर्तता है; यहाँ ऐसा नहीं बतलाना है । यहाँ तो प्रगटित शुद्धपर्याय है, उसकी बात है। शुद्ध पर्याय पहले नहीं थी और तत्पश्चात् द्रव्य के आश्रय से प्रगट हुई, अत: पर्याय में द्रव्य का अभाव वर्तता है; इसप्रकार कोई तर्क करे तो वह तर्क मिथ्या है, यह बात ही यहाँ नहीं लेना है । यहाँ तो निरपेक्ष कथन करना है। शुद्ध पर्याय पहले नहीं थी और बाद में प्रगट हुई, ऐसा प्रश्न ही नहीं उठता है। निरपेक्ष कहो और सामान्य