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बीसवाँ बोल
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आत्मा अभेद-एकरूप वस्तु है । वह ज्ञानविशेष को स्पर्श नहीं करता है । उसे जाने बिना धर्म नहीं होता है । धर्म धर्मी में से उत्पन्न होता है । अभेद एकरूप आत्मा की श्रद्धा करने से नवीन धर्म पर्याय प्रगट होती है । त्रिकाली अभेदस्वभाव में ज्ञानादि गुणभेद का अभाव है।
अभेद आत्मा ज्ञानादि गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है और सम्पूर्ण द्रव्य ज्ञानगुण के भेद का अभाव है। दो वस्तु हों उनमें किसीप्रकार का अभाव है यह बतलाते हैं। जो वस्तु ही नहीं हो तो अभाव बतलाया नहीं जा सकता है; अत: आत्मा में ज्ञान आदि का गुणभेद है, कोई गुणभेद ही नहीं माने तो उसका व्यवहार ही सच्चा नहीं है। भेद और अभेदरूप वस्तु एक ही समय में है । इसप्रकार व्यवहार का ज्ञान कराने के पश्चात् अभेदद्रव्य में ज्ञानगुण के भेद का अभाव बतलाया है। भेद के लक्ष से सम्यग्दर्शन नहीं होता है; परन्तु अभेद के लक्ष से सम्यग्दर्शन होता है।
इस प्रमाण से गुणभेद से नहीं स्पर्शित अभेद आत्मा तेरा स्वज्ञेय है, ऐसा तू जान। इसप्रकार श्रद्धा - ज्ञान करने से धर्म होता है ।
बोल १९ : आत्मा ज्ञानपर्याय विशेष से नहीं स्पर्शित शुद्धद्रव्य है, ऐसा स्वज्ञेय को तू जान ।
लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध विशेष जिसको नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा पर्यायविशेष से नहीं आलिंगित ऐसा शुद्धद्रव्य है; ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
यहाँ लिंग अर्थात् पर्याय, परन्तु पर्याय तो अनंत हैं; अतः ग्रहण का अर्थ ज्ञान की पर्याय लिया है । वह जिसको अर्थात् आत्मा को नहीं है, वह शुद्धद्रव्य है । यहाँ आत्मा को ज्ञान की पर्याय नहीं है अर्थात् शुद्धद्रव्य एक पर्याय जितना नहीं है। त्रिकाली द्रव्य में क्षणिकपर्याय का अभाव है, इसप्रकार कहना है । सम्यग्दर्शन किसके आश्रय से प्रगट होता है, वह कहते हैं ।
१. त्रिकाली स्वभाव यदि निमित्त का आश्रय करे तो पर के साथ एकताबुद्धि होती है, सम्यग्दर्शन नहीं होता है।