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________________ बीसवाँ बोल ७५ करता है। आत्मवस्तु में कृत्रिमता नहीं है, कृत्रिमता नवीन-नवीन उत्पन्न करता है। उसे दूरकर स्वभाव सन्मुख होने से सम्यक्त्व की नवीन पर्याय प्रगट होती है। वह कैसे चैतन्य स्वरूप आत्मा पर दृष्टि करने से प्रगट होती है ? आत्मा कौन है ? ये बातें इस बोल में आयी हैं। ___ हे भव्य ! तू आत्मा को अलिंगग्रहण जान, ऐसा कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं। इस १८वें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ : अ-नहीं, लिंग-गुण, ग्रहण अर्थावबोध अर्थात् ज्ञान । लिंग और ग्रहण के अर्थ भिन्न किये हैं। देखो! लिंग का अर्थ तो गुण कहा है; परन्तु गुण तो सामान्य है, गुण तो अनेक हैं, उनमें से कौन-सा गुण? तो कहते हैं कि ज्ञान गुण । देखो ! ग्रहण शब्द में से ज्ञानगुण निकाला है अर्थात् आत्मा को ज्ञान गुण नहीं है अर्थात् जिसमें ज्ञानगुण और आत्मा गुणी, ऐसा भेद नहीं है, वह आत्मा शुद्धद्रव्य है। १. शरीर-मन-वाणी की क्रिया तो आत्मा में नहीं है; क्योंकि वह तो अजीव पदार्थ है, अतः उसके लक्ष से धर्म नहीं हो सकता है। २. दया, दान, काम, क्रोध आदि के भाव औपाधिकभाव हैं, कृत्रिम हैं, वे वस्तुस्वरूप में नहीं हैं। अतः उनके लक्ष से धर्म नहीं होता है। ३. आत्मा अनंतगुणरूप एक अभेद वस्तु है। उस अभेद वस्तु में 'यह ज्ञानगुण है ' ऐसा भेद उत्पन्न करने पर वस्तु अभेद नहीं रहती है। ऐसे भेद के लक्ष से भी धर्म नहीं होता है। अतः यहाँ कहते हैं कि अभेद आत्मा एक ज्ञानगुण का स्पर्श नहीं करता है – ऐसा तू आत्मा को जान। .. . __यह ज्ञेय अधिकार है। ज्ञेय आत्मपदार्थ कैसा है कि जिसकी श्रद्धा करने से सम्यग्दर्शन हो? सम्यग्दर्शन अर्थात् प्रथम धर्म - अनादि काल से नहीं प्रगट हुआ अपूर्व सम्यग्दर्शनरूपीधर्म, कैसे आत्मा को श्रद्धा में लेने से होता है ? आत्मस्वरूप से विपरीत मान्यतावाला अजैन है/मिथ्यादृष्टि है। १. आत्मा में परवस्तु का अभाव है; अतः जो जीव आत्मा को शरीरवाला या कर्मवाला मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। २. तथा आत्मा में शुभाशुभ परिणाम होता है, वह पुण्य-पाप तत्त्व है, आस्रवतत्त्व है, उसे जीवतत्त्व मानना, वह भी मिथ्यादृष्टि है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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