________________
७२
अलिंगग्रहण प्रवचन बीसवाँ बोल न लिंगं प्रत्यभिज्ञानहेतुर्ग्रहणमर्थावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्यानालीढशुद्धपर्यायत्वस्य ॥१७२॥
अर्थ :- लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है, इसप्रकार 'आत्मा द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसी शुद्धपर्याय है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ॥ १७२॥ शुद्धपर्याय की अनुभूति ही आत्मा है, ऐसा स्वज्ञेय को तू जान।
सम्यग्ज्ञान की पर्याय त्रिकाली ज्ञानगुण को स्पर्श नहीं करती है, इसप्रकार यहाँ कथन है। लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण, ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य अर्थात् त्रिकाली ज्ञानगुण, प्रत्यभिज्ञान अर्थात् यह वही है – ऐसा जो भूत-वर्तमान की संधिवाला ज्ञान, वह प्रत्यभिज्ञान है। पूर्व की स्मृति और प्रत्यक्ष के जोडरूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। ऐसे प्रत्यभिज्ञान का कारण सामान्य त्रिकाली गुण है। आत्मा, वह सामान्य त्रिकाली गुण को नहीं स्पर्शित ऐसा शुद्ध पर्याय है – ऐसा कहना है। ___ सम्यग्ज्ञान की पर्याय, शरीर के कारण नहीं है, शुभभाव के कारण नहीं है; उसीप्रकार त्रिकाली ज्ञानगुण सामान्य जो कि शक्तिरूप है, उसके कारण भी नहीं है। यदि वह पर्याय द्रव्य के कारण है, ऐसा कहो तो पर्याय का है पना' (अस्तित्व') नहीं रहता है, अहेतुक सत्पना (अस्तित्व) नहीं रहता है।
१८वें बोल में कहा था कि आत्मद्रव्य, सामान्य, अभेद है, वह गुणभेदविशेष को स्पर्श नहीं करता है । १९वें बोल में कहा था कि आत्मद्रव्य सामान्य पर्याय के भेद-विशेष को स्पर्श नहीं करता है। २०वें बोल में इससे भी सूक्ष्म बात है। साधकदशा में जो सम्यग्ज्ञान की पर्याय है अथवा मोक्ष में केवलज्ञान की जो पर्याय है, वह विशेष है। वह विशेष शुभभाव अथवा शरीर के आधार से तो नहीं है; परन्तु वह, त्रिकाली ज्ञानगुण सामान्य एकरूप है, उसके कारण भी नहीं है। शुद्ध पर्यायरूप जो विशेष है, वह सामान्य के आधार से प्रगट