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अलिंगग्रहण प्रवचन तेरा नित्य आत्मा अनित्य निर्मल पर्याय को भी स्पर्श नहीं करता है, ऐसे स्वज्ञेय को तू जान। __ निर्मल पर्याय से नहीं स्पर्शित आत्मा शुद्धद्रव्य है। १८वें बोल में 'अर्थावबोध' शब्द दिया था और कहा था कि गुणभेद होने पर भी अभेद आत्मा गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है, इसप्रकार गुणभेद का निषेध कराकर अभेद आत्मा की श्रद्धा कराई थी। यहाँ ऐसा कहते हैं कि साधकदशा में सम्यग्ज्ञान की निर्मलपर्याय को अथवा केवलज्ञान के समय केवलज्ञानी की पूर्ण निर्मलपर्याय का आत्मा चुम्बन नहीं करता है, स्पर्श नहीं करता है। द्रव्य, पर्याय जितना ही नहीं है; इसप्रकार कहकर पर्याय-अंश का लक्ष छुड़ाना है और अंशी द्रव्य की श्रद्धा करानी है।
आत्मा सामान्य एकरूप है। वह समय-समय की पर्यायमय हो जाये तो द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्न नहीं रहते हैं। जिसप्रकार पर्याय क्षणिक है; उसी प्रकार द्रव्य भी क्षणिक हो जाये अर्थात् द्रव्य अनादि-अनंत नहीं रहे। ___ प्रवाहरूप से तूने अनादि से विकारी परिणाम ही किये हैं, उनको तो आत्मा ने कभी स्पर्श किया नहीं, उनके साथ एकरूप हुआ ही नहीं। अज्ञानी भले ही मानता हो कि मैं सम्पूर्ण विकारी हो गया; परन्तु उसका आत्मा भी विपरीत मान्यता के समय द्रव्यदृष्टि से तो विकाररहित ही है। क्योंकि यदि शुद्धद्रव्य विकारमय हो जाये तो विकाररहित होने का कभी प्रसंग ही नहीं बने; यहाँ तो यह बात ही नहीं है। ___ यहाँ तो इससे भी आगे की बात कहनी है कि आत्मा ज्ञाता-दृष्टा-शुद्ध स्वभावी है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करने से जो निर्मलपर्याय प्रगट होती है, उस पर्याय को भी आत्मा स्पर्श नहीं करता है, आलिंगन नहीं करता है; परन्तु आत्मा नित्य शुद्धद्रव्य है। ऐसा तेरा ज्ञेयस्वभाव है। जैसा ज्ञेयस्वभाव है वैसा जाने तो सम्यक्दर्शन-ज्ञान प्रगट हो। ऐसी अपूर्व बात अनंतकाल में सुनने को मिली है। यथार्थ समझ करके सम्यक् प्रतीति करे तो धर्म हो, परन्तु जिसको यह बात सुनने को भी नहीं मिली है, उसे तो धर्म कहाँ से होगा? अर्थात् नहीं ही होगा।