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अलिंगग्रहण प्रवचन
इसप्रकार बाह्य पदार्थों में और क्रिया में धर्म मानते हैं । भाई ! जिसको वस्तुस्वभाव का ज्ञान नहीं है, उसे धर्म कभी भी नहीं होता है।
सम्यग्दर्शन का विषय शुद्ध, एकाकार, अभेद आत्मा है।
प्रश्न : सम्यग्दर्शन का विषयभूत आत्मा कैसा है? वह जैसा है वैसा जाने तो धर्म हो। कोई जीव शक्कर को अफीम माने तो क्या उसका शक्कर का ज्ञान सच्चा कहलाता है? अथवा शक्कर और अफीम-दोनों को एक ही पदार्थ माने तो क्या उसका शक्कर का ज्ञान सच्चा कहलाता है ? और शक्कर के ऊपर जो मैल है, उसको शक्कर का स्वरूप माने तो क्या सच्चा ज्ञान कहलाता है ?
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उत्तर : नहीं, वह सच्चा ज्ञान नहीं कहलाता है । शक्कर शक्कर है, अफीम नहीं है; दोनों भिन्न हैं । शक्कर के ऊपर का मैल भी शक्कर का स्वरूप नहीं है; उसीप्रकार शरीर को आत्मा माने तो आत्मा का ज्ञान सच्चा नहीं होता है आत्मा और शरीर दोनों को एक माने तो भी आत्मा का ज्ञान सच्चा नहीं होता । आत्मा की पर्याय में क्षणिक विकार है, उसे अपना त्रिकाली स्वरूप माने तो भी आत्मा का ज्ञान सच्चा नहीं होता है। शरीर-मन-वाणी रहित, विकल्परहित 'और गुणभेदरहित, एकाकार, अभेद आत्मा सम्यग्दर्शन का विषय है।
यहाँ बीसों बोल में पहले व्यवहार सिद्ध करते जाते हैं और उसके पश्चात् व्यवहार का निषेध करके निश्चय का ज्ञान कराते जाते हैं । मात्र व्यवहार को स्वीकार करे और उसमें रुक जाये तो भी धर्म नहीं होता है।
गुणभेद होने पर भी आत्मा गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है ।
यहाँ १८वें बोल में व्यवहार सिद्ध करके निषेध कराया है। जो वस्तु हो उसका निषेध किया जाता है; परन्तु जो न हो उसका क्या निषेध हो ?
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, स्वच्छत्व, विभुत्व आदि आत्मा में अनंत गुण हैं। कोई मानता हो कि ऐसा गुणभेद ही नहीं है तो उसको व्यवहार श्रद्धा भी नहीं है। एक गुण अन्य गुणरूप नहीं है - इसप्रकार गुणभेद है, तो भी उसमें जीव रुकता है तो धर्म नहीं होता है। गुणभेद में आत्मा एकाकार हो तो आत्मा का एकत्व भिन्न नहीं रहता है। आत्मा त्रिकाली गुणों का पिंड है, वह सामान्य है