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सत्रहवाँ बोल आत्मा बाह्य धर्मचिह्नों को ग्रहण नहीं करता है। ऐसा स्वज्ञेय को तू जान।
शरीर की नग्न दिगम्बरदशा, वह धर्म का चिह्न नहीं है।
१. आत्मा शुद्धचिदानन्दस्वरूप है, ऐसा भान होने के पश्चात् स्वभाव में विशेष स्थिरता होना अंतरमुनिदशा है और जब अंतर में निग्रंथदशा प्रगट होती है तब बाह्य में वस्त्र आदि नहीं होते हैं अर्थात् शरीर की नग्न दिगम्बरदशा होती है तथा मयूरपीछी और कमंडल होते हैं । बाह्य में नग्नदशा ही नहीं होती है, इसप्रकार कोई मानता है तो यह स्थूल भूल है।
२. परन्तु बाह्य निमित्त-मयूरपीछी आदि तथा शरीर की नग्नदशा आदि का आत्मा में अभाव है। आत्मा उन्हें ग्रहण नहीं करता है; क्योंकि वे जड़ पदार्थ हैं, वे उनके कारण होते हैं । आत्मा उनके उठाने-रखने की क्रिया नहीं कर सकता है।
३. तथा वह नग्नदशा, मयूरपिच्छ, कमंडलु आदि हैं; अत: मुनि का मुनिपना रहता है, ऐसा भी नहीं है; क्योंकि अंतर की भावलिंगीदशा, वह मुनिपना है।
इसप्रकार व्यवहार से बाह्य संयोग का ज्ञान करा कर निश्चय में उस व्यवहार का अभाव वर्तता है; इसप्रकार कहते हैं । 'मैं शरीर की अवस्था कर सकता हूँ, दिगम्बर हूँ, मुनिपने की अवस्था जितना ही हूँ,' इसप्रकार मुनि कभी भी नहीं मानते हैं तो भी उन्हें अंतर में मुनिदशा वर्तती है, तब शरीर की अवस्था शरीर के कारण नग्न होती है। शरीर की नग्नदशा आत्मा से होती है, इसप्रकार माननेवाला जीव मुनि नहीं है; परन्तु मिथ्यादृष्टि है।
जो जीव ऐसा मानता है कि शरीर की नग्नदशा को मैंने किया है, मैंने इच्छा से वस्त्र का त्याग किया- इसप्रकार शरीर और वस्त्र की क्रिया का जो स्वामी बनता है, वह स्थूल मिथ्यादृष्टि है। अंतरंग में जब तीन प्रकार की कषाय रहित वीतरागी रमणता हो, तब देह की नग्नदशा उसके कारण होती है; जिसको ऐसा भान नहीं है और परपदार्थों की क्रिया होती है, उसका