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अलिंगग्रहण प्रवचन वह आत्मस्वरूप की लक्ष्मी का स्वामी नहीं है; परन्तु भिखारी है अर्थात् मिथ्यादृष्टि है, उसे धर्म नहीं होता है। ___ इस बारहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है -अ-नहीं, लिंग-इन्द्रियों द्वारा, ग्रहण विषयों का उपभोग अर्थात् आत्मा को इंद्रियों द्वारा विषयों का उपभोग नहीं है; ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। यह नास्ति का कथन है। अस्ति से आत्मा अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि निर्मल पर्यायों का भोक्ता है - ऐसा निर्णय होता है। इसप्रकार आत्मा स्वज्ञेय है, वह जैसा है वैसा उसका श्रद्धान करना सम्यक्त्व अर्थात् धर्म का कारण है। ___ अहो! महा समर्थ अमृतचन्द्राचार्यदेव ने एक अलिंगग्रहण शब्द में से बीस बोल निकाले हैं, प्रगट किये हैं। बाह्य-अभ्यन्तर निर्ग्रन्थ भावलिंगी मुनि छट्टे-सातवें गुणस्थान में झूलते थे। बाह्य में नग्न दिगंबरदशा थी और अन्तर में राग की चिकनाई के स्वामित्वरहित रूखी दशा वर्तती थी। आचार्यदेव ने चैतन्य में विश्राम करते-करते, चैतन्य उपवन में रमण करते-करते बीस बोल प्रगट किये हैं।
तेरहवाँ बोल न लिंगात्मनो वेन्द्रियादिलक्षणाद्ग्रहणं जीवस्य धारणं यस्येति शुक्रातवानुविधायित्वाभावस्य।
अर्थ :- लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार आत्मा शुक्र और आर्तव को अनुविधांयी (अनुसार होनेवाला) नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा जड़प्राणों से जीवित नहीं रहता है। ऐसा स्वज्ञेय को तू जान!
पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयु – ये दस प्राण हैं; परन्तु जीव उनसे जीवित नहीं रहता है; क्योंकि वे दसों प्राण जड़ हैं और आत्मा तो शाश्वत चैतन्यप्राणवाला है। जड़प्राण का आत्मा में अभाव है; अत: आत्मा जड़प्राण से जीवित नहीं रहता है।